Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 40
________________ वुधजन-सतसईना जाने कुलशीलके, ना कीजै विसवास । तात मात जातै दुखी, ताहि न रखिये पास ॥३६॥ गनिका जोगी भूमिपति, वानर अहि मंजारे। इनत राखें मित्रता, परै प्रान उरझार ॥३७॥ प्पट पनही बहु खीर गो, ओषधि वीज अहार । ज्यों लाभै त्यौं लीजिये, कीजै दुख परिहार ॥३८॥ नृपति निपुन अन्यायमै, लोभनिपुन परधान । चाकर चोरीमैं निपुन, क्यों न प्रजाकी हान ॥३९॥ धन कमाय अन्यायका, वृष दश थिरता पाय । रहै कदा पोड़स बरस, तौ समूल नस जाय ॥४०॥ गाड़ी तरु गो उदधि वन, कंद कूप गिरराज | दुरविपमैं नो जीवका, जीवो कर इलाज ॥४१॥ जाते कुल शोभा लहै, सो सपूत वर एक । भार भरै रोड़ी चरै, गर्दभ भये अनेक ॥४२॥ दूधरहित घंटासहित, गाय मोल क्या पाय । त्यौं मूरख ऑटोपकरि, नहिं सुघर है जाय ॥४३॥ कोकिल प्यारी वैनत, पतिअनुगामी नार। नर वरविद्याजुत सुघर, तप वर क्षमाविचार ॥४४॥ दूरि वसत नर दूत गुन, भूपति देत मिलाय। ढांकि दूरि रखि केतकी, बास प्रगट है जाय ॥४५॥ १ मार्जार-विल्ली । २ प्रधान-मंत्री। ३ वर्ष-साल । ४ घरेपर । ५ आडम्बर-ठाठ वाट । ६ गुणरूपी दूत ।

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