Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 42
________________ २९ बुधजन-सतसईनदी नेखी भंगीनिमें, शस्त्रपानि नर नारि । बालक अर राजान ढिग, वसिये जतन विचारि ॥५६॥ कामीका कामिन मिलन, विभवमाहि रुचिदान । भोजशक्ति भोजन विविध, तप अत्यंत फल जाना|५७|| किंकर हुकमी सुत विवूध, तिय अनुगामिनि जास। विभव सदन नहिं रोग तन, ये ही सुरगनिवास ।।५८॥ पुत्र वहै पितुभक्त जो, पिता वह प्रतिपाल । नारि वहै जो पतिवृता, मित्र वहै दिल माल ॥५९॥ जो हँसता पानी पिय, चलता खावै खान । द्वे चतरावत जात जो, सो सठ ढीट अजान ॥६॥ तेता आरॅम ठानिये, जेता तनमैं जोर। तेता पॉव पसारिये, जेती लांबी सोर ॥६॥ बहुते परप्रानन हरें, बहुते दुखी पुकार । बहुते परधन तिय हरें, विरले चलें विचार ॥६२॥ कर्म धर्म विरले निपुन, विरले धन दातार | विरले सत बोले खरे, विरले परदुखटार ॥३॥ गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन वन चंदन नाहिं । उंदघि सारिसे साधुजन, ठौर ठौर ना पाहि ॥६४॥ १ नखवाले । २ सींगवाले । ३ हाथमे हथियार रखनेवाला मनुष्य । ४ दान करनेमे रुचि । ५ पंडित। यह "सन्न जल्पेत्" का अनुवाद ठीक नहीं हुआ, "जो हंसता भाषण करे। ऐसा ठीक होता । ७ समुद्रसरीखे गंभीर । --

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