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उपदेशाधिकार। ध्याचे सो पावै सही, कहत बाल गोपाल । बनिया देत कंपर्दिका. नरपति कर निहाल ॥१॥ उलझे सुंलझिर मुंध भये, त्यौ तू उलन्यौ मान । मुलअनिको माधन कर, तो पहुंच निजथान ॥२॥ लखत सुनन मुंषत चखत. इंद्री त्रिपन न होय । मन रोक इंद्री तक, ब्रह्म परापति होय ॥३॥ तृष्णा मिटै सॅतोपतै, सेये अति बढ़ि जाय । दन डार आग न बुझे, तृनारहित बुझ जाय ॥४॥ चाहि कर सो ना मिले, चाहि समान न पाप । चाहि रखें चाकरि कर, चाहि विना प्रभु आप ॥५॥ पाप नान पर-पीड़यो, पुन्य जान उपगार । पाप बुरो पुन है भलो, कीराखि विचार ।।६।। पाप अलप पुन व अधिक, ऐसो आरम ठानि । व्यों विचार विणजे मुवर, लाभ बहुत तुछ हानि ॥७॥ विपति परै सोच न करो, कीजे जतन विचार । सोच कियेत होत है, तन धन धर्म बिगार ॥८॥ सोच किय चक्रित रहै, जात पराक्रम भूल । प्रबल होत वैरी निरखि, करि डारे निरमल ॥९॥
१ कौड़ी। २ सुलम करके । ३ शुद्ध । ४ पुण्य । ५ व्यापार करे। ६ भ्रमिष्ट ।
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