Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 46
________________ बुधजन-सतसईधिक विधवा भूपन सजै, वृद्ध रसिक धिक होय। धिक जोगी भोगी रहै, सुत धिक पढ़े न कोय ॥१२॥ नारी धनि जो सीलजुन, पति धनि रनि निजनार। नीतिनिघुन जो नृपति धनि, संपनि धनि दातार ॥१३॥ रसना रखि मरजाढ तू , भोगत बोलत बोल । बहु भोजन बहु बोलतै, परिहै सिरपै धोलें ॥९॥ जो चाहो अपना भला, तौ न सतावो कोय । नृपहकै दुर्गसीसते, रोग सोग भय होय ॥९५|| हिंसक जे छुपि बन बस, हरि अहि जीव भगान । (फिरे) बैल हय परधवा, गऊ में मुखदान ।।९६॥ वैर प्रीति अबकी करी, परभवमै मिलि जाय । निवल सबल हैं एकसे, दई करत है न्याय ॥१७॥ संसकार जिनका भला, ऊँचे कुलके पूत । ते सुनि मुलटें जलद, जैसे ऊन्याँ मूत ॥१८॥ पहलें चौकस ना करी, चूड़त विसनमॅझार । रंग मजीठ छटै नहीं, कीये जतन हजार ॥१९॥ जे दुरवलको पोपि हैं, दुखते देत बचाय । ताते नृप घर जनम ले, सीधी संपति पाय ॥३००|| इति सुभाषितनीति । १ कुछ भी। २ थप्पड़। ३ वुरा आशीर्वाद-शाप । ४ महा। ५ गधा। ६विधाता या कर्म । ७ नटाईपर चढ़ाया हुआ साफ सूत ।

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