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बुधजन-सतसई
मिनखे-जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम । सो कुचे अजके कंठमैं, उपजे गये निकाम ||७४॥ सरता नहिं करता रहौ, अर्थ धर्म अर काम । नित तड़का द्वै घटि रह्या, चितवौ आतमगम ||७|| को स्वामी मम मित्र को, कहा देशमैं रीत । खरच किता आमद किती, सदा चिंतवौ मीत ॥७६।। वमन करते कफ मिटै, मरदन मेटै बात । स्नान कियेतें पित मिटै, लंघनते जुर जात ||७७॥ को मांस घृत जुरवि, सूल द्विदल यो टार । इंग-रोगी मैथुन तजी, नवौं धान अतिसारं ॥७८|| अनदाता साता विपत, हितदाता गुरुज्ञान । आप पिता फुनि धायपति, पंच पिता पहिचान ॥७९॥ गुर्ररानी नृपकी तिया, बहुरि मित्रकी जोयं । पतिनी-मा निजमातजुत, मात पांच विधि होय ||८०॥ घसन छेद ताड़न तपन, सुवरनकी पहिचान । दयासील श्रुत तप गुननि, जान्या जात सुजान ॥८॥
१ मनष्य जन्म | २ बकरके गलेके स्तन । ३ सबेरेन्दो घड़ी रात रहने पर । ४ कोढ रोगमे मास खाना 1 शन गोगमे दो दालोंवाला अन्न खाना । ६ नेत्ररोगी। ७ अतीसार रोगमे अर्थात् दस्तोकी बीमारीमें नया अन्न गुरुकी स्त्री.। ६ खी।