Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 45
________________ सुभापितनीति। जाप होम पूजन किया, वेदतत्त्वश्रद्धान । करन करावनमें निपुन, दुजे-पुरोत गुनवान ||८२॥ भली बुरी चितम बसत, निरखत ले उर धार । सोमवदन वक्ता चतुर, दुत खामिहितकार ||८|| याहीत सुकुलीनता, भूप कर अधिकार । आदि मध्य अवमानमें, करते नाहि विकार ॥८४|| दुष्ट तियाका पोपना, मृरखको समझाय । वैरीत कारज पर, कौन नाहि दुख पाय ॥८५॥ विपताका धन रासिये, धन दीजे रखि दार । आतमहितको छांडिये, धन दारा परिवार ॥८६॥ दारिदमै दुरविसनमें, दुरभिख फुनि रिपुघात । राजद्वार समसानमै, साथ रहै सो भ्रात ।।८७॥ सर्प दुष्ट जन दो बुरे, तामै दुष्ट विसेख । दुष्ट जतनका लेख नहि, सर्प जतनका लेख ||८|| हा धन भूपन वसन, पंडित जदपि कुरूप। मुघर सभामै यो लस, जैसे राजत भूप ।।८९।। स्नान दान तीरथ किये, केवल पुन्य उपाय । एक पिताकी भक्तित, तीन वर्ग मिलि जाय ।।९०॥ जो कुदेवको पूजिकै, चाहै शुंभका मेल । सो वालुको पेलिक, कादया चाहै तेल ॥११॥ १ द्विज पुरोहित । २ खी। ३ स्मशानमे-मुदखानेमें । ४ तीन पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम । ५ पुण्य ।

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