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सुभापितनीति । मुंसक साकका असन वर, निरजनवन वर वास । दीन-वचन कहियो न वर, जौ लौ तनमैं साँस ॥४६॥ एकाक्षरदातार गुरु, जो न गिनै विनज्ञान । सो चडाल भवको लहे, तथा होयगा स्वान ॥४७॥ . सुख दुख करता आन है, यो कुबुद्धिश्रद्धान । करता तेरे कृतकरम, मेटे क्यों अज्ञान ॥४८॥ मुख दुख विद्या आयु धन, कुल बल वित अधिकार । साथ गर्भमै अवतरें, देह धरी जिहि पार ॥४९॥ वन रन रिपु जल अगनि गिरि, रुज निद्रा मद मान । इनमें पुंन रक्षा करे, नाहीं रक्षक आन ॥५०॥ दुराचारि तिय कलहिनी, किंकर कर कठोर । सरप साथ वसिवा सदन, मृत समान दुख घोर ॥५१॥ संपति नरभव ना रहे, रहे दोपगुनवात । हे जु बनम बासना, फूल फुलि झर जात ॥५२॥ रक त्यागि कुल राखिये, ग्राम राख कुल तोरि । ग्राम त्यागिये राजहित, धर्म राख सब छोरि ॥५३।। नहिं विद्या नहि मित्रता, नाहीं धन सनमान । नहीं न्याय नहि लाज भय, तजौ वास ता थान ॥५४॥ किंकर जो कारज कर, बांधव जो दुख साथ । नारी जो दारिद सहै, प्रतिपाले सो नाथ ॥५५॥
१ सूखा । २.पुएव ।