Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 37
________________ १२३ - सुभापितनीति । आदि अलप मधिमै धनी, पद पद वधती जाय । सरिता ज्या सतपुरुपहित, क्यों हू नाहिं अघाय ||७॥ गुहि (2) कहना गुहि (१) पूछना, दैना लैना रीति । खाना आप खवावना, पटविधि अधि है प्रीति ||८|| विद्या मित्र विदेगमे, धर्म मीत है अंत । नारि मित्र घर त्रिप, व्याधी ओपधि मिंत ॥९॥ नृपहित जो पिरजा अहिन, पिरजा हित नृपरोप । दोऊ सम साधन कर, मो अमात्य निरदोष ॥१०॥ पाय चपल अधिकारकी, शत्रु मित्र परवार । सोप तोप पोप विना, ताका है धिक्कार ॥११॥ निकट रहे सेवा कर, लपटत होत खुस्याल । दीन हीन लखते नहीं, प्रमदा लता भुऑल ॥१२॥ दुष्ट होय परधान जिहि, तथा नाहि परधान । ऐमा भूपति सेवतां, होत आपकी हान ॥१३॥ पराक्रमी कोविद गिलपि, सेवाविद विद्वान | एते सोहे भूप घर, नहिं प्रतिपाले आन ॥१४॥ भूप तुष्ट है करत है, इच्छा पूरन मान । ताके काज कुलीन ह, करत प्रान कुरवान ॥१५॥ बुद्धि पराक्रम वपु बली, उद्यम साहस धीर । संका मान देव , ऐसा लखिकै वीर ॥१६॥ • १ प्रजा । २ मंत्री । ३ स्त्री । ४ भूपाल-राजा । ५ शिल्पीकागगर।

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