Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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बुधजन-सतसईसांप दर्श दे छिप गया, वैद थके लखि पीर।। वैरी करतें छुटि गया, कौन धरि सकै धीर ॥१७॥ वलधनमैं सिंह न लसँ, ना कागनमै हंस । पंडित लसैं न मृमैं, हये खरमैं न प्रशंस ॥९८॥ हय गय लोहा काठि पुनि, नारी पुरुप पखान । वसन रतन मोतीनमैं, अंतर अधिक विनान ॥९९॥ सत्य दीप वाती क्षमा, सीय तेल संजोय । निपट जतनकरि धारिये, प्रतिबिंवित सब होय॥१०० परधन परतिय ना चित, संतोपामृत राचि । ते सुखिया संसारमै, तिनकौं भय न कदाचि ॥१०१।। रंक भूपपदवी लहै, मूरखसुत विद्वान । अंधा पावै विपुल धन, गिनै तुना ज्यौ आन ||२|| विद्या विपम कुशिष्यकों, विप कुपथीको व्याधि । तरुनी विष सम वृद्धकौं, दारिद प्रीति असाधि ॥३॥ सुचि असुची नाहीं गिने, गिने न न्याय अन्याय । पाप पुन्यकों ना गिने, भूसा मिलै सु खाय ॥ ४ ॥ एक मातके सुत भये, एक मते नहिं कोय । जैसे कांटे वेरके, बांके सीधे होय ॥५॥ देखि उठै आदर करै, पूछ हिततै वात । जाना आना ताहिका, नित नवहित सरसात ॥६॥
१ बैलोंमें । २ एक प्रतिमे 'पुत्रविना नहि वंश' पाठ है ।

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