Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 35
________________ - मुभापितनीति। अगनि काठ सरिना उदधि, जीवनत जमगज । मृग नननि कामी पुरुष, पति न होत मिजाज।।८७।। दारिदजुन हु महंत जन, करवे लायक काज । दंतमंग हस्ती जदपि, फोरि करत गिरिगज ||८|| दई होत प्रतिकूल जब, उद्यम होत अकाज । मम पिटार्ग काटिया, गया मग्प करि खाज ||८|| बाघ नरम भीतर नरम, सज्जन जनकी वान । बाय नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।।९०॥ चाह कछ हो जाय कछ, हारे विद्युध विचारि। होतंवत हो जाय है, युट्टि करम अनुमारि ॥ ९१ ।। जाके मुखमैं मुख लह, विन मित्र कुल भ्रात । ताहीकी जीवों मुफल, पिटभरकी का बात ॥१२॥ हुए होहिंगे मुभट मत्र, करि करि थके उपाय । तिमना खानि अगाध है, क्यों हु भरी न जाय ॥१३॥ भोजन गुरुजवसेन जो, नान वह बिन पाप । हिन पगेख कारज किय, घग्मी रहितकलाप ॥९॥ काल जिनार्य जीपको, काल कर संहार । काल सुवाय जगाय है, काल चाल विक्रगल ||९५|| काल करा दे मित्रना, काल कग दे रार । कालखेप पंडित कर, उलझे निपट गॅवार ॥९॥ १खा गया।२ पंडित।३होतव्यमे होनहारसे। पेट भरनेवाले-पेटायूं १५कलापरहित-बकवादरहित थोड़ा बोलनेवाला।

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