Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ २० बुधजन-सतसईनृप सेवा” नष्ट दुज, नारि नष्ट विन सील । गनिका नष्ट संतोपत, भूप नष्ट चित ढील ॥७॥ नाहीं तपसी मूढ़ मन, नहीं सूर कृतघाव । नहीं सती तिय मद्यपा, फुनि जो गान सुभाव ॥७८॥ सुतको जनम विवाहफल, अतिथिदान फल गेह । जन्म सुफल गुरुतै पठन, तजिवा गग सनेह ॥७९॥ जहां तहां तिय व्याहिये, जहां तहां सुत होय । एकमात सुत भ्रात बहु, मिल न दुरलभ सोय ।।८०॥ निज भाई निरगुन भलो, पर गुनजुत किहि काम । आंगन तरु निरफल जदपि, छाया राखे धाम ॥८॥ निसिमें दीपक चंद्रमा, दिनमै दीपक सूर । सर्व लोक दीपक धरम, कुल दीपक सुत सूर ॥८२॥ सीख दई सरधै नहीं, कर रैन दिन सोर । पूत नहीं वह भूत है, महापापफल घोर ॥८॥ सुंसक एक तरु सघनवन, जुरतहिं देत जराय । त्यौ ही पुत्र पवित्र कुल, कुबुधि कलंक लगाय ॥८४॥ तिसना तुहि प्रनपति करूँ, गौरव देत निवार । अंभु आय वाचन भये, जाचक बलिके द्वार ॥८५॥ मिष्ट वचन धन दानतें, सुखी होत है लोक। सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि, रीझत पंडित थोक ॥८॥ १ एक माके पेटसे उत्पन्न हुए भाई।२ शुष्क-सूखा। ३ जुड़ते ही। ४ विष्णु भगवान 1 ५ वामन-ठिगने ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91