Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 22
________________ बुधजन-सतसईतो लखि उर हरपत रहूं, नाहि आनकी चाह । दीखत सर्व समान से, नीच पुरुष नरनाह ॥६६॥ तुममैं मुझमैं भेद यो, और भेद कछु नाहि । तुम तन तजि परब्रह्म भये, हम दुखिया तनमाहिं।।६७॥ जो तुम लखि निजकौं लखै, लच्छन एक समान । सुथिर वन त्यागै कुवुधि, सो है है भगवान ॥६८॥ जो तुम नाहीं मिले, चलै सुछंद मदवान । सो जगमैं अविचल भ्रमै, लहै दुखांकी खान ॥६९॥ पार उतारे भविक बहु, देय धर्म उपदेश । लोकालोक निहारिकै, कीनौं सिव परवेस ॥७०॥ जो जांचै सोई लहै, दाता अतुल अछेव । इंद नरिंद फनिंद मिलि, करें तिहारी सेव ॥७१॥ मोह महाजोधा प्रवल, औंधा राखत मोय । याकौं हरि सूधा करौ, सीस नमाऊं तोय ॥७२॥ मोह-जोरकौं हरत हैं, तुम दरसन तुम वैन । जैसैं सर सोषन करै, उदय होयकै ऐनॆ ॥७३॥ भ्रमत भवार्णव मिले, आप अपूरव मीत । संसों नास्या दुख गया, सहजै भया नचीत ॥४॥ तुम माता तुम ही पिता, तुम सज्जन सुखदान । तुम समान या लोकमैं, और नाहिं भगवान ॥७५॥ - १ नरनाथ-राजा । २ दुःखोकी । ३ हरके नष्ट करके। ४ सूर्य (1) 1 ५ संशय-शक । ६ निश्चिन्त बेफिकर ।

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