Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ - - सुभापितनीति । या लछमी जा घर बने, मो है मदा निहाल ॥२९॥ कृर कुरूपा कलहिनी, करकम बन कठोर । मी भूतनि भोगिवा सिधा नम्बनि घोर ॥३०॥ वरज्यं पुलकी यालिका. स्प पुस्प न जाये। रूपी आली पणता, हीन कं ना कोय ॥३१॥ विपति धीर ग्न पिकामी, मपति क्षमा दयाल । कलागुगल कोविद कर्वा, न्याय नीति भूपाल ॥३२॥ मांच झूट भाप महिन. हिमा दयामिलाय । अति आमद अति व्यय कर, ये गजनिकी सास ॥३३॥ मुजन मुनी दरजन दंग करें न्याय धन संच । प्रजा पले पंच ना करें, श्रेष्ठ नृपति गुन पंच ॥३४॥ काना ढूंडा पांगुला, वृट कयग अंध । वेवारिस पालन करें, भूपति रचि परबंध ॥३५॥ कृपनयुटि अन्युग्रचित, मृट कपट अदयाल । ऐमा स्वामी संवत, केंट न होय निहाल ॥३६॥ इंकारी व्यसनी हटी, आरसंगान अनान । भृत्य न एमा गमिये, कर मनोरथहान ॥३७॥ नृप चाल ताही चलन, प्रजा चल वा चाल । जा पथ जा गजगज तह, जात जूथ गजवाल ||३८॥ १देखकर । २ पत। ३ कभी।४ अहंकारी-घमंडी। ५पालसवान। ६ दास-नीकर। ७ वह। समूह ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91