Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
१३
मुभापितनीति। मीत भय गौरव घटे, शत्रु भय दे मारि ॥१०॥ जाकी प्रकृति का अनि, मुलान होय लस न । भज मदा आधीन परि, तंज जुर्म मैन ॥११॥ सिथिल वैन ढाढम विना. ताकी पैठ बनै न । ज्या प्रसिद्ध रितु मन्दको. अम्बर नै जर न ॥१२॥ जतनथकी नको मिल, विना जतन ल आन । वासन भरि ना पीत है, पशु पवि मत्र थान ॥१३॥ इटी मीठी तनकनी, अधिकी मान कौन । अनमरत बोली इमी. ज्यों आटेम नीन ॥१क्षा चारी विभिचारीनित, डर निकमतं गल। मालनि ढांक टोकग, स्टे लसिक छल ॥१५॥ आसर लखिये बोलिये, जयाजोगता बैन । सावन भादी बग्नत, मन ही पाय चन ॥१६॥ चोलि उंट आमर विना, ताफा रहे न मान । जम कानिक वग्मत, निद माल जहान ॥१७॥ लाज कान पर दरब, लाज काज संग्राम । लाज गर्य सम्वग गर्यो, लाज पुरुषकी माम (१) ॥१८॥ आरंभ्या पूग्न कर, कन्या वचन निरवाह । धीर मलज सुन्दर रम (१), येते गुन नरमांह ॥१९॥
१ काम नहीं चल सकता हो, तो।२ "सारै थान ऐसा भी पाठ है।

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91