Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ सुभापितनीति । भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार । मधुर बोल जस लीजिये, नातर अजस तयार ॥४९॥ सेय जती कै भूपती, वसि वन के पुर बीच । या विन और प्रकारत, जीवांत वर मीचं ॥५०॥ घनौ सुलप आरंभ रचि, चिगै नाहिं चित धीर । सिंह उठकै ना मुग, करै पराक्रम वीर ॥५१॥ इंद्री पंच मकोचिक, देश काल वय पेखि । वकवत हित उद्यम करे, जे हैं चतुर विसेखि ॥५२॥ प्रातः उठि रिपुतै लरै, बांट बंधुविभाग । रमनि रमनमैं प्रीति अति, कुंरकट ज्यौं अनुराग ॥५३॥ गृढ मईथुनं चख चपल, संग्रह सजै निधान । अविसासी परमादच्युत, वायस ज्यौं भतिवान ॥५४॥ बहभ्यासी संतोपजुत, निद्रा स्वलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यों, चितवत स्वामी हेत॥५५॥ बहै भार ज्यों आदरचौ, सीत उष्ण क्षत देह । सदा सतोपी चतुर नर, ये रसब गुन लेह ॥५६॥ टोटा लाभ संताप मन, घरमैं हीन चरित्र । भयौ कढा अपमान निज, भा नाहि विचित्र ॥५७॥ १ नहीं तो। २ जीनेसे । ३ मृत्यु । ४ वगुलेके समान । ५ कुक्कुट-मुर्गा।६ मैथुन । ७अविश्वासी । रासभ-गधा। है यहां विचित्रसे विचक्षण-बुद्विमानका अभिप्राय होगा। - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91