Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 19
________________ - - - देवानुरागशनक। अजर अमर सय अनत. अपाम अबरनवान | अग्ग अरूपी गंवधिन, चितानंद भगनान ॥ ३५ ॥ कहत यो मुग्गुर गुनी. मोमन किम मायें। ५ उग्म जिनन मरे. निननेह न जायें ॥३॥ अरज गन्जकी करन इ. नाग्न तग्न गु नाथ । भरमागरम दूप मह, नाग गहकारि हाथ ॥३७॥ पीती जिती न कहि नई नव भासत है नोय । याहीत विनती कर, फेरि न बात मोय ॥३८॥ वारण वानर बाब अहि, अंजन भील चेंडार । जाविधि प्रभु मुमिया किया, मो ही मेरी बार ॥३९॥ हूँ अजान जान बिना, फिरयो चतुरगति थान । अब चाना नग्ना लिया, कग कृपा भगवान ॥४०॥ जगजनकी गिनती मुनी, अहो जगतगुरुदंव । नाली हूँ जगमै रद, नाली पाऊँ संव ॥४१॥ तुम तो दीनानाथ हो, म हे दीन अनाय । अब तो डील न कीजिये. मला मिल गयो साथ ॥४२॥ बाग्वार विनती करू, मनपचन तोहि । पग्यों रहें तुम चग्गनट, मो सुधि दी मोहि ॥४३॥ और नाहि जाचं प्रभू, या वर ढीज मोहि । जाली मित्र पन्द्रनं नहीं, नाली मेऊ ताहि ॥४॥ या संमार अमाग्में, तुम ही देग मार। और सकल गस पफरि, आप निकासनहार ॥४५॥

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