________________ सुशीला गुरुदेव ने राजा को 'धर्मलाभ' दिया। कुछ समय बाद गुरुदेव का व्याख्यान (प्रवचन) प्रारम्भ हुआ। आरम्भ में उन्होंने मधुर स्वर में नवकार मंत्र का उच्चारण किया और फिर आराध्य देव, भवतारक, मुक्ति दाता (मोक्ष दाता) श्री तीर्थंकर प्रभु की स्तुति की। मंगलाचरण के समय समस्त सभाजन खडे रहे और उसके पूरा होते ही सभी अपने-अपने स्थान पर विनयपूर्वक शांति से बैठ गये। तब पूज्य आचार्यश्री ने धर्मोपदेश प्रारम्भ किया : "हे भव्य आत्माओ। संसार में धर्म से ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं। मंगल रूपी लताओं को सींचने के लिये धर्म मेघ स्वरूप एक साधन है। सभी मनो कामनाओं को पूरा करने में वह कल्पवृक्ष के समान है, पाप रूपी वृक्षों को उखाड़ फेंकने के लिये हाथी के समान है और सत्कर्मों को बढ़ावा देने का मुख्य कारण रूप एक मात्र धर्म ही हैं। ____धर्म से अपनी अभिलाषाएँ संतुष्ट होती हैं, भयंकर तथा अत्यधिक दुःखदायी कष्ट क्षणार्ध में शांत हो जाते हैं। इससे देवी देवता भी वश में हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार धर्म की आराधना से आत्मा से चिपके हुए अनेकानेक कर्म शनैः शनैः क्षीण - कृष होते जाते हैं। विविध प्रकार के दानों में जैसे अभय दान श्रेष्ठ है, सभी गुणों में जैसे क्षमा गुण श्रेष्ठ है, सभी पूज्यों में जैसे गुरू भगवन्त श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त साध्यों में एक मात्र धर्म ही श्रेष्ठ है। जिन किन्हीं भव्य आत्माओं ने एक बार भी धर्मामृत का पान किया हो, उनके सभी कार्य सिद्ध होते तनिक भी विलम्ब नहीं लगता। जिसे एक बार दूध मिल जाता हो, उसके लिये फिर दही घृतादि पदार्थ सहज सुलभ होते हैं। हे भव्य आत्माओं! संसार में दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर भी जो यथाशक्ति धर्माराधना नहीं करते, ऐसे मूर्ख जन बड़े श्रम से प्राप्त चिंतामणी रत्न को समुद्र में फेंक देने की मूर्खता करते हैं। हे राजन्! जिसमें मुख्य तत्त्व दया हो, उसी को धर्म कहा गया है। जो दया विहीन धर्म करते हैं, गस्तव में वह धर्म नहीं करते। क्योंकि शास्त्रकारों ने दया हीन धर्म को निष्फल कहा है। जिस प्रकार बिना सेनापति के सेना अपने कार्य में निष्फल सिद्ध होती है, उसी प्रकार दया रहित धर्म भी निष्फल सिद्ध होता है। फल स्वरूप धर्म की प्रक्रिया में दया को ही प्रधान माना गया है। फिर, गुण विहीन गुरू और बिना गुरू के तत्वज्ञान की वास्तविक जानकारी बुद्धिमान पुरुषों को भी नहीं हो सकती। ठीक वैसे ही मनुष्य के नेत्र कितने ही विशाल और तेजस्वी क्यों न हों, वह गहन अंधेरे में दीपककी सहायता के बिना ठीक से नहीं देख सकता। इसी कारण, सुमार्ग बतलाने में दीपक के समान, भव सागर पार करवाने में नाव के समान और मोक्षार्थी पुरुषों को अपने हाथ का सहारा देने वाले गुरूदेव के प्रति हमें सदैव श्रद्धा रखनी चाहिए।" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust