________________ गौरवमयी गुरूवाणी लोक-जिव्हा पर आज भी उनका नाम अंकित है। हे भव्यजनों! जिनकी सम्यक्त्व गुणों से सुशोभित मेधावी बुद्धि जिन भाषित शास्त्रों में स्थिर है, वे ही मानव-भव रूपी महासागर को बडी सरलता से पार कर सकते हैं। उपरोक्त तथ्य में संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है। परन्तु जो अपनी बुद्धि का उपयोग मात्र वाक्पटुता, वाग्जाल अथवा अनर्गल बकवास करने में करते हैं, वे स्वयं लक्ष्य से भ्रष्ट बला की तरह जन्म, जरा और मृत्यु से प्रत्याडित और प्रताडित ऐसे स्वप्न में भी कभी भवसागर को पार नहीं कर सकते। जीव को छल-कपट से मोहित करनेवाले कितनेक गुरु पाषाणवत होते हैं। वे स्वयं तो संसार-सागर में डूबते ही हैं। किन्तु साथ ही साथ सांसारिक सुख और धन-संपदा की तीव्र लालसा के कारण अन्य जीवों को भी उसमें डूबोते हैं। कितनेक गुरु मर्कट सदृश होते हैं। जब तक उनका प्रयोजन सिद्ध नहीं हो जाता तब तक लोगों को प्रतिबोधित करने का स्वांग रचते है। किन्तु अपना स्वार्थ सिद्ध होते ही उनका परित्याग कर अन्यत्र चले जाते हैं। अतः विचक्षण पुरुषों का कर्तव्य हो जाता हैं कि, वे मानव में रत्न समान ऐसे परम ब्रह्म उच्चात्मा गुरु पर ही श्रद्धा रखें, जो सर्वथा सज्जनों द्वारा उपासना के योग्य हो। साथ ही उन्हें ही गुरु-स्थान पर प्रतिष्ठित कर उनका अर्चन-पूजन करना चाहिए। ___ मांस-मज्जादि से युक्त और मल-मूत्रादि से उत्पन्न यह मानव शरीर है। जो इस गंदे शरीर पर कतई आसक्त नहीं है... ना ही इस पर मोहित है, ऐसे व्यक्ति ही सच्चे दार्शनिक कहलाते हैं। जीव मात्र के लिये क्रोध हमेशा शत्रु है। क्रोध के कारण ही शत्रुओं की उत्पत्ति होती है। क्रोध से पारावार हानि होती है। सांसारिक सम्बन्ध तो बिगडते ही है, किन्तु वह आत्मा को भी दूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं रखता। अतः जब क्रोध का ज्वर उफनने लगता है, तब मन-मस्तिष्क को संयमित और शांत रखना अत्यावश्यक है। जीवन में सहिष्णु और क्षमाशील बनना सिखना चाहिए। ज्ञानीजनों ने ठीक ही कहा है : 'क्षमा वीरस्य भूषणम्।' . हम जिस परिवार और स्वजनों से रात-दिन घिरे रहते हैं, वह सब स्वप्न समान है। मृत्यु आते ही कोई साथ नहीं देता, अपितु 'अपने बेगाने' बन जाते हैं। मृत्योपरांत सब के सम्बन्ध टूट जाते हैं और हमें अकेला ही भला जाना पड़ता है.... ऐसे प्रसंग पर संगी-साथी कोई साथ नहीं आते। .. जिन वैभव-विलास और धन-संपदा के पीछे दीवाने बन, हम धर्म-कर्म विस्मरण कर देते हैं, वह तो मरुज मृगजल है। अतः कभी किसी के लिए मोहान्ध बन, अपने मूल संस्कारों को भूलना नहीं चाहिए। ___ अतः अध्रुव, आशाश्वत और अनित्य ऐसी इस काया के प्रति कभी आसक्त न बनो। उसकी ममता को तिलाञ्जली दे दो। यह नश्वर काया जलकर नष्ट हो जाएगी। किन्तु आत्मा अजरामर है। वह कभी नष्ट नहीं होता। फलतः प्रायः उसमें लीन-तल्लीन रहना चाहिए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust