Book Title: Bhimsen Charitra Hindi
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 250
________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 239 साथ-साथ अन्य जनों को भी अपने साथ घसीट ले जाते हैं और फलस्वरूप दोनों के सर्वनाश का स्वयं ही न्यौता देते हैं। ऐसे मूढ संसार का भेद समझने में असमर्थ सिद्ध होते हैं...! अनेकों सद्गुरु और भक्ति विहीन मूर्ख आत्माएँ अप्रमेय सर्वार्थ सिद्धि के दाता विवेक रुपी मणि-मुक्ताओं का सर्वथा त्याग कर बाह्याडम्बर वाले मत के पक्ष में जुड जाते हैं। इस तरह सात्विक धर्म से विमुख हो, दुष्ट मत के अनुयायी बन, नाना प्रकार के प्रलाप करने में खो जाते हैं। जिस तरह एकाध अगाध सागर में खोये रत्न को खोजना मेरु पर्वत पर आरोहण करने जैसा अत्यंत दुष्कर कार्य है। ठीक उसी तरह मानव मात्र के लिए भी संसार-सागर में से बोधि-रल को पुनः प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ कार्य है। ___ मानव मात्र के लिए इस जगत में सुर, असुर और राजा-महाराजाओं का आधिपत्यत्व ठीक वैसे ही इन्द्र-पद प्राप्त करना सहज सुलभ कार्य है। सौभाग्य, उत्तमकुल, शूरवीरता, कला, रूपलावण्यमयी अंगनाएँ आदि त्रैलोक्य में सर्व प्रिय ऐसी वस्तुएँ सरलता से प्राप्त हो सकती है। परंतु सर्वोत्तम एवम् सर्वश्रेष्ठ ऐसे बोधिरन की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। जिसके हृदय-मंदिर में सुबोध रूपी दीपिका प्रायः प्रदीप्त रहती है ऐसे ज्ञानी नर-पुंगव को अतीन्द्रिय ऐसे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। उपरोक्त बारह भावनाएँ मुक्ति रूपी लक्ष्मी की अभिन्न प्रिय सखियाँ हैं। अतः सुज्ञजनों का परम कर्तव्य हो जाता है कि, वे इनके साथ सख्य-भाव साधे। हे भीमसेन नरेश! आप इन बारह भावनाओं का नित्यप्रति नियमित रूप से सेवन कर मुक्ति -सुख का वरण करो। ___आचार्य भगवंत की माधुर्य प्रचुर मंगल-वाणी श्रवण कर भीमसेन प्रभावित हो गया। बारह भावनाओं का सुन्दर, सुलभ और सम्यक् स्वरूप आत्मसात् कर उसकी शुभ भावनाएँ अंगडाई लेने लगीं। फल स्वरूप आचार्यदेव से उसने श्रावक के बारह व्रतों की सौगंद ली। सौगंद लेने में सुशीला भी उसकी सहभागी बनी। अन्य श्रोतागणों ने भी यथायोग्य व्रत-ग्रहण किये। तत्पश्चात् भीमसेन सपरिवार राजमहल लौट आया। कुछ समय तक राजगृही में वास कर एक दिन आचार्यदेव श्री हरिषेणसूरीश्वरजी ने भव्यजीवों को प्रतिबोध देने की अभिलाषा से अन्य नगर की ओर विहार किया। राजा भीमसेन और नगरजनोने साश्रु नयन उन्हें विदा दी। आचार्यश्री हरिषेणसूरीश्वरजी ग्रामानुग्राम निरंतर विचरण करते, वहाँ के प्रजाजनों को प्रतिबोधित करते हुए एक दिन अपने शिष्य समुदाय के साथ वैभारगिरि आ पहुँचे। अब तक आपने संयम-जीवन की उत्कट साधना की थी। चौदह पूर्वो का गहन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

Loading...

Page Navigation
1 ... 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290