Book Title: Bhimsen Charitra Hindi
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 253
________________ 242 भीमसेन चरित्र वैसे ही सुख और शांति का स्वाद भी चखा है। राजकुल में उत्पन्न होने के उपरांत भी मुझे वन-उपवन में निरंतर भटकना पड़ा है। क्षुधा-तृष्णा की तीव्र वेदनाएँ भोगनी पडी हैं। शीत और आतप में परिवार समेत दर-दर की ठोकरे खानी पड़ी हैं। अपमान और अवहेलना का हलाहल विष-पान करना पड़ा है। हे भगवन्! यह सब मेरे साथ क्यों घटित हुआ? किन कर्मों के कारण मुझे व्यतीत जीवन जीना पडा? जबकि इस भव में तो मैंने ऐसा कोई अशुभ कर्म का आचरण नहीं किया है, ना ही जाने-अनजाने किसी को त्रास देने का लेशमात्र भी प्रयत्न किया है, तो मेरे साथ यह सब क्यों हुआ? पूर्वभव में मैंने ऐसे कौन-से कुकर्म किये थे कि, जिसके कारण इस भव में मुझे इतनी सारी विपदा-विडम्बनाओं को सहना पडा है? __ हे परमाराध्य! आप तो केवलज्ञानी है... अनन्त ज्ञान के आगार है... सूरि-पुरंदर है। आपसे कुछ अज्ञात नहीं है। अतः मुझे अपने पूर्वभव से अवगत कराने की कृपा करें" ___"भीमसेन! कर्म-सत्ता अपरम्पार है। उसका न ओर है न छोर है और ना ही भूत-भविष्य है। ठीक वैसे ही वर्तमान में किये गये कर्मों का फल इसी जन्म में प्राप्त होंगे ऐसा भी कोई अटल-अचल नियम नहीं है। पूर्वकृत किये गये कर्मों का विपाक इस जन्म में भी भोगना पडता है... सहन करना पड़ता है और यहाँ किये गये शुभाशुभ कर्मों का हिसाब भवभवान्तर में चुकाना होता है। इस भव में जो सुख-दुःख प्राप्त हुए हैं, वह सब तुम्हारे द्वारा किये गये पूर्वभवों के शुभाशुभ कर्मों का परिणाम है। अतः हे सुज्ञजन, अपने पूर्व भव को श्रवण कर अपने कर्मों का सही हिसाब लगाओ ताकि, भवाटवी में बार-बार भटकना न पड़े।" और केवली भगवंत श्री हरिषेणसूरिजी ने भीमसेन के पूर्वभव का वृत्तान्त कहना आरम्भ किया : "जंबूद्वीप नामक द्वीप में महाप्रभावशाली भरत क्षेत्र के मध्य भाग में वैताढ्य पर्वत अपनी शान और गरिमा से समस्त क्षेत्र की शोभा में चार चांद लगा रहा है। उक्त पर्वत पर सुरम्य वनश्री के साथ-साथ अनेक जिनालय स्थित हैं। इसी पर्वतमाला की गोद से तीन लोक का ताप हरण करनेवाली पतीत पावनी गंगा और सिंधु जैसी दो नदियाँ बह रही हैं। इसी भरत क्षेत्र के दक्षिणार्ध भरत के मध्य में वाराणसी नामक यथा नाम तथा गुणों से अलंकृत एक मनोहारी नगर है। एक समय की बात है। यहाँ पर सिंहगुप्त नामक महा पराक्रमी राजा राज्य करता ' था। वह अत्यंत तेजस्वी, विलक्षण, मेधावी प्रतिभा का धनी और धर्मपरायण था। उसकी रानी का नाम वेगवती था। रुप और सौन्दर्य की वह साक्षात् प्रतिमूर्ति थी। वह सुशील और पतिवत्सला थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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