Book Title: Bhimsen Charitra Hindi
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 265
________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 255 दिया गया। वहाँ वे शस्त्रशास्त्र कला में निष्णात गुरु के सान्निध्य में शस्त्र, शास्त्र एवम् विविध कलाओं का अभ्यास करने लगे। इस तरह गुरु-गृह में वास करते हुए वे बहत्तर कलाओं में पारंगत हो गये। विद्याध्ययन पूर्ण कर योग्य समय पर कामजित् एवं प्रजापाल वाराणसी लौट आये। अब वे पूर्णरूप से युवक बन गये थे। यौवन की अलौकिक शक्ति एवम् ताजगी ठीक वैसे ही सौंदर्य एवम् हृष्ट-पुष्ट काया के कारण पल-पल यौवनोन्माद का अनुभव करते थे। कुमारों को यौवनावस्था की धरा पर दृढता से बढते देख, सिंहगुप्त का सीना फूल कर कुधरा हो गया और रानी वेगवती का मातृत्व गौरव अनुभव करने लगा। विवाह योग्य अवस्था में प्रविष्ट होते ही दोनों कुमारों का बडे आडम्बर के साथ परिणय-संस्कार सम्पन्न किये गये। तदनुसार कामजित् का विवाह प्रीतिमति के साथ और प्रजापाल का विद्युन्मति के साथ कर दिया गया। दोनों राजकुमार संसार सागर में गोते लगाते जीवन को आमोद-प्रमोद में व्यतीत कर रहे थे। तभी एक बार वाराणसी के उद्यान में आचार्य भगवंत का अपने विशाल शिष्य समुदाय के साथ आगमन हआ। आचार्यदव महाप्रभावशाली हो, सकल शास्त्रों के पारगामी थे। वनपालक से आचार्यश्री को आगमन की समाचार प्राप्त होते ही राजा सिंहगुप्त सदल-बल, सपरिवार आचार्यश्री के वंदनार्थ उद्यान में गया। वहाँ उसने भक्तिभाव पूर्वक आचार्यश्री की वंदना को और करबद्ध विनीतभाव से उनके सम्मुख आसन-ग्रहण किया। साथ ही उनसे धर्मोपदेश प्रदान करने की विनति की। . प्रत्युत्तर में धर्म-वाणी प्रकाशित करते हुए गुरुदेव ने सागर-गंभीर स्वर में कहा : "हे भव्यात्माओ! इस बात का पूर्णरूप से ध्यान रहे कि, यह मानव-जन्म तीव्र लालसा * और इच्छा के बावजूद भी बार-बार प्राप्त नहीं होता। वस्तुतः इसे प्राप्त करनेवाला जीव बडा ही भाग्यशाली होता है। अतः ऐसे अत्यंत दुर्लभ मानव-जन्म को प्राप्त करने के उपरांत भी जो जीव इसे आमोद-प्रमोद एवम् भोग-विलास के उपभोग में ही व्यतीत करते हैं, वे अनायास ही प्राप्त चिंतामणिरल सम मानवभव को व्यर्थ गँवाते हैं। उनका जीवन धूल में मिल जाता है। समग्र जीवन बर्बाद हो जाता है और इस प्रकार मानव-जन्म व्यर्थ में ही नष्ट कर देते है। अतः मानव-जन्म प्राप्त कर सुज्ञजनों को निष्ठापूर्वक धर्माराधना कर इसे सफल बनाना चाहिए। वस्तुतः धर्म हमारा मुक्तिदाता है। श्री जिनेश्वर देव ने धर्म के दो भेद बताये हैं : प्रथम महाव्रत धर्म और द्वितीय अणुव्रत धर्म। LIILIN P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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