________________ 277 टूटते - बंधन . भुगतना होगा। अतः ध्यान रखो, जैसा करोगे वैसा ही फल पाओगे। ____ अनादिकाल से ही यह आत्मा कर्म रूपी पंक से सना हुआ है। अनेकानेक शुभाशुभ कर्मों की मोटी परतें... तहें जम गयी हैं और उसके भार के कारण तुम स्वयं जो हो, तुम्हारा जो वास्तविक स्वरूप और स्वभाव है उसका तुम्हें सही ज्ञान नहीं होता। परिणामतः देह को ही अपना मान, उसके धर्म में कार्य-लीन हो, तुम अकारण ही विविध प्रकार के सुख-दुखों को सहन करते हो अर्थात् जान-बुझ कर निरंतर भव-भ्रमण में रत रहते हो। ___ अतः हे भव्य जीवो! अपने आत्मा को पहचानो। तुम्हारे आत्मस्वरूप को जानो और जो तुम्हारा आत्म-धर्म है, उसका यथार्थ पालन कर त्याग-मार्ग का अवलम्बन करो। ___ मोह-माया का त्याग करो। ममता से दूर रहो। आसक्ति को भस्मीभूत कर दो और पाप-कर्म से हमेशा बचो। ज्ञानामृत का सेवन करो। शुभ तत्त्व को पहचानो। सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की संगति करो। विशुद्ध शील का पालन करो। बारह प्रकार के तप की आराधना करो, बारह व्रत का सेवन करो और बारह भावनाओं से आत्मा को भावित करो। दुष्ट विपाकयुक्त असद्गृह का त्याग करो। शुभ ध्यान से कर्ममल का प्रक्षाल. करो और वैराग्य भावना से आत्मा को ओतप्रोत कर दो। इस तरह जो भद्र जीव अपने कर्मों का क्षय करते हैं... उन्हें नष्ट करने के लिए अप्रमत्त भाव से उद्यमशील बनते हैं। वे कभी दुर्गति के शिकार नहीं बनते और क्रमशः मुक्ति -रमणी का वरण करते हैं। ____ अतः उपदिष्ट गुणों का नियमपूर्वक निष्ठा के साथ पालन करो। क्योंकि उसके पालन से संसार के त्रिविध ताप का नाश होता है। हे महानुभावो! जो जीव धर्म तत्त्वों से परिचित नहीं है, ऐसे जीव एकाध अनजान पथिक की भाँति भवाटवि में निरंतर भटकते रहते हैं। तत्त्व के नौ भेद हैं : जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। आश्रव तत्त्व में पुण्य और पाप का अतर्भाव (समावेश) है। उत्पत्ति, स्थिति और व्यययुक्त, अमूर्त, चेतना लक्षणवाला, कर्म का कर्ता, कर्म का भोक्ता एवं शरीर में उत्पन्न होनेवाले, उर्ध्वगामी को जीव तत्त्व कहते है। जो कर्म-प्रवृत्ति का कर्ता है और कर्म-फल का भोक्ता है। ठीक वैसे ही संसार में सतत भ्रमणशील हो, उसे आत्मा कहते है। आत्मा के दो भेद हैं : सिध्ध एवम् संसारी। और नरकादि चार गति के भेद से संसारी जीव चार प्रकार के होते हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust