Book Title: Bhimsen Charitra Hindi
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 238
________________ गौरवमयी गुरुवाणी 227 को घर आ जाए तो भूला नहीं कहलाता। अभी मुझ में यौवन का नवचैतन्य है... स्फूर्ति और चपलता है... मेरी इंद्रियाँ स्वस्थ और निरोगी हैं। जो होना था या बीत गयी सो बात गयी। परन्तु जो शेष है... मेरे बस में है, उसका तो उचित योग कर लूँ। आयुष्य की एक-एक पल आत्म-कल्याण में व्यतीत कर दूँ। गृहस्थावस्था में तो इसमें से कुछ भी नहीं होगा और जो होगा वह इससे एकदम विपरीत ही होगा। अतः दीक्षा ग्रहण कर आत्म-साधना करना एकमेव रामबाण उपाय है। पूज्य गुरुदेव द्वारा उद्घोषित पवित्र धर्म का पालन कर अपने मानव-जन्म को सफल बनाऊंगा। प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् श्रोतावृन्द में से अनेक श्रद्धालुओं ने विविध व्रत-महाव्रत पालन करने की प्रतिज्ञा लीं। और स्वस्थान लौट गये। किन्त हरिषेण ने राजमहल लौटने का नाम नहीं लिया। वह उद्यान में बैठा रहा। उसने ज्येष्ठ भ्राता आदि परिजनों को जाने दिया और अकेला संत-सान्निध्य में मौन धारण कर नतमस्तक खडा रहा। "महानुभाव! क्या बात है? तुम अभी यहीं हो? क्या कोई शंका है अथवा कुछ पूछना है? " आचार्यश्री का मेघ गंभीर स्वर गूंज उठा। "गुरुदेव! आपकी अद्भुत वाणी का मेरे हृदय पर इस कदर असर हुआ है कि, यहाँ से कहीं दूर जाने का मन ही नहीं हो रहा है। हरि सोगरा आचार्य भगवंत के चरणारविंदो में बैठ अपने कारण भीमसेन को उठानी पड़ी भारी विपत्ति के पापों को नष्ट करने का उपाय पूछता हुआ हरिषेण। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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