Book Title: Bhimsen Charitra Hindi
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 230
________________ गौरवमयी गुरुवाणी 219 कौमुदी महोत्सव के अवसर पर योजनानुसार ललितांग रानी के अतःपुर में आया। रानी ने प्रसन्न हो उसका यथोचित सत्कार किया। स्वादिष्ट भोजन कराया। उत्तम पेयपान कराया। रानी अपनी मर्यादा को छोड़कर ललितांग से निःसंकोच वार्तालाप करने लगी। ललितांग रानी के रूप जाल में फंस गया। वह अपना संतुलन खो बैठा। लोक मान्यता है कि विषय विचार ही स्त्री-समागम की इच्छा उत्पन्न करते हैं। समीपता से प्रायः काम की उत्पति होती है। काम से क्रोध तथा क्रोध से संमोह का जन्म होता है। जबकि संमोह से स्मृति भ्रंश होता है। और बुद्धि का क्षय। जब प्राणी की बुद्धि क्षय हो जाती है, तब उसका सर्वनाश अवश्यंभावी है। ललितांग की अवस्था भी ऐसी ही हो गई। अपनी बुद्धि को गिरवी रखकर वह भोग विलास में आकंठ डूब गया। रानी भी रसानंद के सागर में हिलोरे ले रही थी। दोनो ही कामांध हो चुके थे। किसी को भी सुध नहीं थी। मानों इस संसार मे मात्र वे दो ही जीव है। तभी न जाने कहाँ से सहसा राजमहल में शतायुध आ पहुँचा। उसने रानी के कक्ष के बन्द दरवाजे को खटखटाया। वैसे तो शतायुध महोत्सव में गया था। प्रस्थान के समय उसने रानी को भी साथ चलने आग्रह किया। किन्तु रानी ने सिर दर्द का बहाना बना कर राजा का आग्रह टाल दिया, अतः राजा अकेला ही गया। परन्तु अतःपुर की किसी वृद्धा दासी ने राजा को कानोकान समाचार प्रेषित कर दिया कि रानी ने सिर-दर्द का बहाना बनाया है। राजा से असत्य वचन कह कर वह यहाँ किसी पर पुरुष संग भोग विलास में रत है। यह समाचार प्राप्त होते ही राजा अन्तपुर में उलटे पांव लौट आया। और रानी के महल का दरवाजा खटखटाया, खटखटाहट सुनकर रानी व ललितागं की घबराहट का पारावार न रहा। दोनों की मृत्यु की आशंका से भय भोत हो गए। मृत्यु सामने दिखाई देने लगी। अब क्या करें कहा जाए? राजा की दष्टि से कैसे बचा जाय? भय के कारण दोनों का बुरा हाल था। रानी ने शीघ्र ही अपने को सचेत किया। वस्त्रों को व्यवस्थित किया। ललितांग भी भागने की योजना बनाने लगा। छुपने का उचित स्थान न पाकर तुरन्त रानी ने उसे अन्तपुर के पिछले भाग में स्थित शौच-कूप में छिपने की सलाह दी। भयभीत ललिताँग के सामने और कोई चारा नहीं था। उसने शौच-कूप में छलांग लगा दी। गिरते ही उसका शरीर व वस्त्र बिष्टा व मल-मूत्र में डूब गये। मारे दुर्गध के उसका सर फटने लगा। राजा के हाथों क्रूर मौत मरने की अपेक्षा इस गंदकी को सहन करना उसे स्वीकार था। किसी ने ठीक ही कहाः 'मरता क्या नहीं करता'? सम्पूर्ण रात्री वह इसी नरक में पड़ा रहा व सोचता रहा कि 'अरे। आज मेरी कैसी दुर्दशा हो गई। कहाँ मेरी बुद्धि। कहाँ मेरा रूप। मुझे ऐसा घृणित कार्य करने की कुबुद्ध कैसे सूझी? रानी के रूप जाल मे न फसता, न उसके साथ रति क्रीडा मे रत होता, तो आज मेरी यह दुर्दशा न होती, ओ प्रभु! भविष्य ये ऐसा पापाचार पनः नहीं करूँगा। परनारी पर कदृष्टि नहीं डालूँगा। यहाँ तक की उसके सम्बन्ध में विचार तक नहीं करूँगा। रातभर ऐसे ही दुर्गंध कूप में पड़ा रहा। सुबह हुई। परन्तु रानी तो बिलकुल भूल चुकी थी कि उसका प्रियतम शौच-कूप में पड़ा हुआ है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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