________________ 81 भाग्य-नृत्य (भाग्य-नर्तन) वीतराग प्रभु की निर्मल व शान्त सुन्दर प्रतिमा के दर्शन करने से सबकी वेदना कुछ दूर हो गयी। सभी ने भक्तिभाव से तीन बार प्रदक्षिणा दी। चैत्यवन्दन किया और मृदु स्वर में स्तवन गाया। किन्तु इससे भीमसेन के हृदय को पर्याप्त शान्ति का अनुभव नहीं हुआ। वह पुनः भक्ति धारा में अज गोते लगाते हुए दोनों हाथ जोड़, श्रद्धाभिभूत स्वर में जिनेश्वर देव की स्तुति करने लगा : "हे जिनेन्द्र! आप तो कल्याण रूपी वल्लरी को प्रफुल्लित करने के लिये मेघ समान हो। आपके चरण कमल में देवेन्द्र तक नतमस्तक हो, धन्यता का अनुभव करते हैं। आप सर्वज्ञ हैं। जगत में चारों ओर आपका ही गान गुंजारित है। मांगलिक कार्य के आप क्रीड़ा केन्द्र हैं। अतः हे देवाधिदेव! आप मेरे दुःखों का नाश कर मुझे सुख प्रदान करें। आप तो तीनों लोक के एक मात्र आधार हैं। साथ ही दया के साक्षात् अवतार है। दुरंत संसार रूपी रोग को नष्ट करने में आप वैद्य के समान हो। क्षमानिधान हे वीतराग प्रभु! मैं आपको प्रणाम कर, अपनी व्यथा-कथा आपके समक्ष निवेदन करता हूँ। जिस तरह कोई बालक टूटी फूटी भाषा में अपनी बात पिता के सम्मुख कहने की घृष्टता करता है उसी तरह मैं भी हे तात! आपका बालक हो, अपनी भाषा में आपसे निवेदन कर रहा हूँ। Mall C a का llantuniml DuTIMMENU JUM LOUILTO nl. MuniIPINNER Virta हारमामासा वीतराग प्रभु के दर्शन करते हुए भीमसेन सपरिवार धन्य हो रहा हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust