________________ 177 महारती सुशीला दरबार में उपस्थित प्रजाजनों ने भी भीमसेन की उदारता की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए जयनाद किया। राजपुरोहित ने प्रशस्ति गान किया। भाट चारणोंने बुलन्द स्वर में उसकी स्तुति की। भीमसेन ने खुले हाथों स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान की - और राजसभा विसर्जित हुई। - कुछ समय पश्चात् भीमसेन ने एक और धर्म-कार्य आरम्भ किया। सुपात्र दान की महिमा से भीमसेन को अतुल संपति प्राप्त हुई थी। उसने इस द्रव्य को भौतिक सुख के साधनों में व्यय करने की अपेक्षा धर्मकार्य में खर्च करना उचित जानकर योजनाओं को मूर्त स्वरूप देने का निश्चय किया। तदनुसार विजयसेन से उसने विशाल भूखण्ड खरीदकर देवालय निर्माण की योजना बनाकर शुभ मुहूर्त में कार्य आरम्भ किया। जिनालय अर्थात् पृथ्वी पर मानव द्वारा निर्मित मोक्ष भवन। जिसमें प्रवेश करते ही उसकी रचना एवं शिल्प-स्थापत्य को दृष्टिगोचर करते ही दर्शक को अनायास मुक्ति के आनन्द की अनुभूति हो ऐसा ही भीमसेन ने कुछ कलात्मक निर्मिति का मन में विचार किया। अतः इस कार्य के लिये उसने देश-विदेश से शिल्पकारों को आमंत्रित कर वास्तुशिल्प सर्वश्रेष्ठ कोटि का बने ऐसे निर्देश दिये। इस कार्य के सम्पूर्ण व्यय की पूर्व तैयारी थी। शिल्प शास्त्रियों ने अल्पावधी में ही मंदिर की प्रतिकृति बनाकर भीमसेन की सेवा में प्रस्तुत की। अपनी योजना का इतना सुन्दर रूप देखकर भीमसेन की प्रसन्नता का पारावार न रहा। रात दिन निर्माण कार्य चलता रहा। भीमसेन स्वयं इस कार्य में रूचि लेने लगा। समय समय पर स्वयं कार्य की प्रगति को जाकर देखता। वर्धमान तप की ओली आरम्भ होने के उपरांत भी इस कार्य में शिथिलता नहीं आने दी देखते ही देखते जिनालय ने एक आकार लेना आरम्भ किया। एक समय जहाँ बिरान व सुनसान जमीन पडी थी, आज वहां भव्य जिन मंदिर आकार लेता दृष्टिगोचर होने लगा था। गवाक्षों व स्तम्भों के निर्माण में शिल्पियों ने अपना सारा कला कौशल बिखेर दिया था। प्रत्येक स्तम्भ में जिन भगवंतो के जीवन प्रसंगों को बड़े सुरूचिपूर्ण ढंग से उत्कीर्ण किया था कि दर्शक पल दो पल मुग्ध भाव से एक टक देखता ही रहता। जिनालय के भीतरी कक्ष में भी शिल्पी अपनी कला को चिरकाल के लिये अमर करने में जुटे थे। मंडप, स्तम्भ, छत सभी स्थानों पर कला के दर्शन हो रहे थे। रंग मण्डप मध्यभाग में स्थित था। उसके चारों ओर परिक्रमा की रचना की थी। प्रस्तुत रचना ऐसी कुशलता पूर्वक की गई थी, कि चारों दिशाओं में स्थित मूर्तियों के दर्शन एक स्थान पर खडे रहकर किये जा सके इसके मध्य भाग में स्तम्भ की रचना नहीं थी ताकि प्रेक्षकगण को किसी प्रकार के अवरोध का सामना नहीं करना पडे। लगभग सब कार्य सम्पन्न हो गया। मात्र शिखर के कलश का कार्य शेष रह गया था। यह कूलश शुद्ध स्वर्ण से निर्मित होना था। स्वर्णकार इसे बनाने के कार्य में जुटें। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust