________________ 214 भीमसेन चरित्र की ज्वाला. कितनी कष्ट कर तथा भयानक होती है इसका अनुभव भीमसेन को हो चुका था। धन सम्पत्ति के अभाव में व्यक्ति की क्या स्थिति हो जाती है, इस त्रासदी से वह भलीभाँति विज्ञ था। विगत दिनों के अनुभव ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया था। फलस्वरूप दुःख से पीडित होने पर ठीक वैसे ही यातनाओं से ज्ञात होकर नास्तिक होने के स्थान पर श्रद्धा ईश्वर के प्रति और बढ गई थी। वह पूर्णरूप से आस्थावान व श्रद्धालु बन गया था। उसके हृदय में कोमल भावनाओं का बीजांकुर स्फुटित हो गया था। मन मष्तिष्क में दया व विवेक ने स्थान ले लिया था। परिणाम स्वरूप भीमसेन ने इस बात का उचित प्रबन्ध कर दिया था कि नगर में कोई व्यक्ति भूखा न सोये। कोई काम धन्धे के अभाव में बेकार न रहे। व्यवसाय व कामधंधा हर व्यक्ति को सरलता से उपलब्ध हो। बालकों में शैशव से ही सुसंस्कारों के सिंचन करने की समुचित व्यवस्था कर रखी थी। नगरजन किस प्रकार दयालु, संस्कारी, सुशील एवम् समन्वयी बने इस बात की वह सतत सावधानी बरतता था। स्वयं नरेश होने के उपरांत भी राजाशाही भोगने की इच्छा भीमसेन में लेशमात्र भी नहीं थी। फलस्वरूप वह एक पिता की भाँति प्रजा का पुत्रवत् संवनन करने लगा। भीमसेन के शासन काल में प्रजाजन सुखी व समृद्ध थे। किसी भी नगरजन को अपने राजन के प्रति कोई शिकायत नहीं थी। सभी भीमसेन की उदारता, न्याय प्रियता व मानवता की भूरी 2 प्रशंसा करते नहीं थकते थे। परदेशी तो मुक्त कंठ से उसका गुणगान करते नहीं अघाते थे। शीघ्र में ही उसकी कीर्तिगाथा देश-विदेश में प्रसृत हो गयी थी। एक प्रातः उद्यानपाल ने भीमसेन की सेवा में उपस्थित हो, बधाई दी। “राजगृही नरेश की जय हो।" 'कहो! क्या समाचार है?" भीमसेन ने उद्यानपाल का प्रणाम स्वीकार करते हुए कहा। ‘महाराज समाचार तो अत्यन्त शुभ एवं मंगल है। राजगृही की धरती आज पवित्र हो गयी। संत - समुदाय के चरण - स्पर्श से यहाँ का कण-कण पावन हो गया। श्रमण भगवंत के पदर्पिण से चारों दिशाएँ सुवासित हो गयी। कुसुमश्री उद्यान में प्रातः स्मरणीय, संसार-तारक परमपूज्य आचार्य भगवंत श्री धर्मघोषसूरीश्वरजी महाराज का शिष्य - समुदाय सहित आगमन हुआ है। आचार्य देव की दृष्टि में दिव्य तेज दृष्टिगोचर हो रहा है। कैसी प्रभावी व प्रतापी उनकी देह यष्टि है। अंग-अंग से मानों ज्ञान व चारित्र के प्रकाश की किरणें फूट रही है। उनके दर्शनमात्र से ही मेरे समस्त दुःखों का शमन हो गया। उनके मुख-कमल से प्रसृत 'धर्मलाभ' शब्द-सुगंधी अभी भी मेरे तन मन को मोहित कर रही है। उनकी दिव्य क्रांति से प्रवाहित वैराग्य ज्योति से मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा है। क्या उनकी मेघ - गंभीर वाणी है। हे महाराज! आप भी उनके दर्शन का लाभ ले सके इसी प्रयोजनार्थ में सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। "उधानपाल! तुम्हारे इस शुभ संदेश से मेरा रोम रोम हर्षित हो उठा। एक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. jun Gun Aaradhak Trust