________________ 210 भीमसेन चरित्र उन्मुक्त मन से चुम्बन अंकित करने में खो गये। “उफ् तू कितना दुर्बल हो गया है हरिषेण| तनिक अपनी ओर तो देख तो? तुम्हारे गाल की हड्डियाँ बाहर निकल आई है। अरे रे! तुम्हारी यह क्या दुरावस्था हो गई है?" भीमसेन ने बड़े वात्सल्य भाव से आर्द्र स्वर में कहा। जबकि हरिषेण की मानसिक अवस्था कुछ भिन्न ही थी। वह हिचकियाँ ले ले कर रो रहा था। आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। मानो रस प्रवाह में वह अपने आप को बहा देना चाहता हो। “मत रो मेरे वत्स! मत रोओ! तुम्हारे सदृश युवक को यो आक्रदन करना शोभा नहीं देता, रुदन करना छोडो और स्वस्थ बनो!" भीमसेन ने अपने अनुज को आश्वस्त करते हुए स्नेहसिक्त स्वर में कहा।" किस प्रकार अपने आँसुओं को रोकूँ बड़े भैया।और क्यों पोछ लूँ? नही तात! नही! मुझे आज जी भर कर रो लेने दो। इन आँसूओं को मुक्त होकर बह जाने दो। जब तक ये नही वहेंगे मेरे मन को शांति और चैन प्राप्त नहीं होगा। मैने आपको असंख्य यातनाएँ दी है। शारीरिक व मानसिक कष्ट दिये है। आपके प्रति धृष्टताका प्रदर्शन किया है। और मेरा अपराध अक्षम्य है अक्षम्य है...! मुझे तो अब मृत्यु दंड ही मिलना चाहिये। तलवार के एक ही वार से मेरा सर धड से अलग कर दीजिये। वास्तव में महापापी हूँ। पिता तुल्य भ्राता को मैंने जान बूझकर मुसीबतों के सैलाब में डूबो दिया। आपको निरर्थक दुखी किया है। मेरे कारण आपको दर-दर की ठोकरे खानी पडी... वन-वन भटकना पडा। बालकों को MIDO हरि सोगमा हरिषेणने अपने दुष्कृत्यों के लिए बड़े भाई भीमसेन के चरणों में गिरकर हृदय के पश्चाताप पूर्वक क्षमा मांगी। मेरे दुष्कर्मों का उदय था कि - आपके प्रति दुर्थितन आया और आपको भारी विपदा आयी।. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust