________________ देव का पराभव 199 मणिचूड विद्याधर राजा राज्य करते हैं। मेरी माता का नाम विमला है। मैं उनकी पुत्री गुणसुंदरी हूँ। यौवनावस्था में प्रवेश करते ही मेरा विवाह कुसुमपुर के नरेश चित्रवेग विद्याधर के साथ मैंने स्वयंवर पद्धति से किया था। ____ मेरे स्वंयवर में अनेकानेक विद्याधर राजा और राजकुमार उपस्थित हुए थे। किंतु चित्रसेन ही एक ऐसा विद्याधर था जिसने बरबस मुझे अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। और मैंने उसका वरण कर लिया। किंतु उस समय मुझे क्या पता था कि यह विवाह महज विवाह मात्र बन कर रह जायेगा। इसी स्वंयवर में भानुवेग नाम का विद्याधर भी उपस्थित था। वह मेरे दर्शन मात्र से मुज पर मोहित हो गया। फलतः उसे मन ही मन ऐसा प्रतित हुआ कि मैं उसके गले मैं ही वरमाला आरोपित कर उसका वरण करूँगी। उसने अपनी प्रेम चेष्टाओं से मुझे आकर्षित करने का यथाशक्ति प्रयत्न किया। परन्तु मैं तो तन-मन से चित्रवेग के प्रति आकृष्ट थी, अतः मैंने चित्रवेग के गले में वरमाला आरोपित की। गया। और उसने कामांध होकर तत्काल मेरा अपहरण कर लिया। मुझे बल पूर्वक अपने कंधे पर उठाये वह वेग से भागने लगा। मेरे स्वामी ने उसका पीछा किया और किसी तरह हम दोनों को पकड़ लिया। भानुवेग मुझे छोडकर चित्रवेग से भिड गया। दोनों में भंयकर युद्ध होने लगा। मैं भय के मारे कापने लगी। मैं दोनों का व्योम मण्डल में घनघोर युद्ध करते देख रही थी। दोनों मंत्र का एक दूसरे पर प्रयोग कर रहे थे। युद्ध की भीषणता देखकर मेरे मुख से चीख निकल गई। परन्तु मेरा भला कौन सुनता? दोनों ही एक दूसरे के जान के दुश्मन बने हुये थे। अस्त्र शस्त्रों के तीक्ष्ण वार से उनका रूधिर धरती पर बह रहा था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? जैसे बुद्धि कही नष्ट हो गई हो। तभी मैंने एक मर्म भेदी चीख सुनी। मैने भयक्रांत हो अंतरिक्ष में दृष्टिपात किया तो दोनों के ही सर धड से अलग हो गये थे। और रक्त के फव्वारे हवा में उड़ रहे थे। मैं आहत हो चित्कार उठी। निढाल हो मैं धरती पर गिर कर अचेत हो गयी। चेतना लौटने पर मैंने देखा कि गगन मैं कोई नहीं था। मेरी घबराहट का पारावार नहीं था। जहां उनका रक्त गिरा था उस ओर दोड पडी। आश्चर्य के साथ मुजे किसी का शव दृष्टिगोचर नहीं हुआ। देखते ही देखते मेरा जीवन उजड गया। अर्धचेतना में भागी गंगा तट पर गयी। वहां गंगा की उत्ताब तरंगों पर दो सर और दो धड तैर रहे थे। किंतु मेरे समीप पहुँचने के पूर्व ही वे अचानक मेरी दृष्टि से ओझल हो गये। बस तभी से मेरा हृदय मेरे वश में नहीं है। और नाही मेरे शोक का पारावार है। मेरा अब तो एक ही दुःख है कि मैं अपनी यौवतावस्था को अकेले कैसे काट सकूँगी मेरा पाणिग्रहण अवश्य हो गया है। परन्तु अब तक मैंने अपने पति का स्पर्श तक नहीं किया। आज भी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust