________________ भाग्य-नृत्य (भाग्य-नर्तन) 79 प्रिया फल के कारण उन्हें चाण्डाल के घर दास बन कर रहना पड़ा, अपना प्रा पिता को सार्वजनिक रूप से नीलाम करना पड़ा और पुत्र का वियोग सहन करना शा ठीक वैसे ही अनेक प्रकार के कष्ट और आपत्ति-विपत्तियों को सहन करना पड़ा। . वस्तुतः कर्म की सत्ता असीम है। एक बार सूर्य पश्चिम में उदय हो सकता है, मेरू पवत अस्थिर हो सकता है, अग्नि अपना स्वभाव छोड़ सकती है और पत्थर पर कमल चल सकते है। परंतु कर्मलेख में... उसके स्वभाव में लेशमात्र भी कभी परिवर्तन नहीं हा सकता। जिसने जैसा कर्म बन्धन किया हो, उसे वैसा उसका फल अवश्य भोगना पड़गा। इसमें मीन-मेख अन्तर नहीं पड़ सकता। आज मेरे अशुभ कर्म उदित है। अतः मुझे उनको भोगना ही पड़ेगा। और भोगे बिना छुटकारा नहीं।" इस तरह विचारों की तरंग में डूबता-उबरता भीमसेन अपने परिवार के साथ अगली मंजिल के लिये निकल पड़ा। यात्रा की थकान से वे सब इतने श्रमित थे कि राह चलते चलते बीच में ही मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़े। ____ उस समय वहाँ से गुजरते आकाश गामी विद्याधरों की दृष्टि सहसा उन पर पड़ी। उनकी व्यथा-वेदना का अहसास कर वे द्रवित हो उठे। अल्पावधि पश्चात भीमसेन की मूर्छा टूटी, उसने पली व पुत्रों को जल के छींटे देकर होश में लाया और मन्थर-गति से सब मार्ग निष्कमण करने लगे। किन्तु वे सब इतने अधिक कलान्त थे कि, अधिक श्रम के कारण उनका अंग-प्रत्यंग प्रकम्पित हो लड़खड़ाने लगा था। परंतु चलने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा न था। कारण किसी ग्राम या जनपद में पहुँचने पर ही भोजन व आवास की व्यवस्था की जा सकती है। अतः अल्पावधि में ही मंजिल पहुँच जाएँगे, यों मन ही मन विचार कर वे आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ रहे थे। तभी अचानक केतुसेन रोने लगा। उसके लिये अब एक कदम भी आगे बढ़ना कठिन हो रहा था। साथ ही उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। मारे क्षुधा से उसका बुरा हाल था। उसने रोती सी सूरत बनाकर कहा : "पिताजी! मुझे भूख लगी है। खाने के लिये कुछ दीजिये न? भूख के कारण एक पग भी आगे नहीं बढ़ा सकता।" बिचारा भीमसेन! कहाँ से भोजन लाकर दें। धन तो पहले ही चोरी हो गया था। जंगल अभी पार करना था। और दूर-सुदूर तक ग्राम कहीं दृष्टिपथ में नहीं था। अपने लाडले बेटे को यों, भूख के मारे, बिलखते देख उसका हृदय व्यथित हो उठा। आँखों में आँसू तैरने लगे। सुशीला की आखें भी भर आई। “यह कैसी कर्म की गति है? साथ ही कितनी विचित्र भी! देवराज इन्द्र जैसे देव भी जीतने में समर्थ नहीं हैं। अन्यथा कहाँ इतने अपार सख वैभव को भोगने वाला एक समय का महा पराक्रमी राजा भीमसेन और कहाँ वन-वन भटकता दरिद्रता का दामन थामे कंगाल बना भीमसेन? यह भी कर्म की ही लीला है न? P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust