________________ 146 भीमसेन चरित्र किन्तु वहाँ साधु नहीं था। मंदिर के गर्भद्वार में उसने साधु की खोज की... बाहर निकल कर जोर जोर से आवाज लगाई : "महात्मन्! महात्मन्!" परन्तु कहीं से कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। स्वयं के शब्दों का नाद लौटकर पुनः उसे सुनाई दिया। भीमसेन की घबराहट का पारावार न रहा। वह आकुल व्याकुल हो गया। उसे पृथ्वी अपने चारों ओर घूमती हुई लगने लगी। हृदय का स्पंदन बढ गया। आँखों के आगे अन्धेरा छा गया। बड़ी कठिनाई से उसने अपने आप को सम्हाला। "महात्मन्! कहाँ गये होंगे? क्या उनकी मति भ्रष्ट हो गई, अथवा बुद्धि फिर गई है? उनके हृदय में कहीं पाप तो पैदा नहीं हो गया? क्या उन्होने यह योजना पहले से ही बना ली थी कि, "मुझे भोजन सामग्री लेने के बहाने नगर में भेजकर स्वयं चम्पत हो जाये?" __हाय विधाता! कैसा क्रूर दाँव मुझ पर चलाया है। कैसा क्रूर खेल मेरे जीवन के साथ खेला है? मेरी जीती हुई बाजी आज पुनः हार में बदल गई। न जाने कैसे कैसे कष्ट झेल कर मैं साधु के साथ गया था। मैंने भूख को नहीं देखा, ना ही प्यास को। चिलचिलाती धूप की भी परवाह नहीं की। एकाग्र चित्त हो, मैंने पूरी इमानदारी के साथ साधु का अनुसरण किया था... उसका साथ निभाया था। परन्तु बदले में क्या मिला? f ilm- indibutiuit Natri हरि सोमहरा सुवर्णसिद्धि होते ही, बुद्धि फिर जाने से भीमसेन को चकमा देकर गायब जटाधारी को भक्तिवश ढूंढता भीमसेन। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust