________________ भीमसेन चरित्र हे करूणानिधि। मैं दुःखों से अत्यन्त प्रपीड़ित हूँ। हे नाथ! मैंने मनुष्य जन्म प्राप्त करने के पश्चात् भी आज तक सुपात्र-दान नहीं दिया, ना ही शीलव्रत का निष्ठा __ पूर्वक पालन किया है। तपश्चर्या भी नहीं की। ठीक वैसे ही भूलकर भी कभी शुभ चिन्तन नहीं किया। फल स्वरूप मुझे इस संसार में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है... अकारण ही इधर उधर भटकना पड़ रहा है। क्रोध की अग्नि में प्रतिपल झुलस रहा हूँ। क्रूर स्वभाव के धारक लोभ रूपी विषधर रह रह कर मुझे दंश मार रहे हैं। अभिमान रूपी अजगर से मैं ग्रसित हैं और मोह माया के बन्धन से जकड़ा हुआ हूँ। फलतः मैं आपका स्मरण भला किस प्रकार कर सकता हूँ। परलोक या इस लोक में मैंने कभी किसी का हित नहीं किया। अतः हे त्रिलोक के नाथ! मुझे किंचित् भी सुखकी प्राप्ति नहीं हुई। हे भगवंत! मेरे सदृश पापी का जन्म केवल संसार पूर्ति हेतु ही हुआ है। __ हे जगताधार! आपके मुख रूपी चन्द्रमा के दर्शन से मेरा मन द्रवित हो, उच्च , कोटि के महा आनन्द रूपी रस का प्रासन नहीं करता इससे मुझे प्रतीत होता है कि, मेरे जैसे प्राणी का हृदय पाषाण से भी अधिक कठोर है। हे प्रभो! जन्म जन्मान्तर भटकने के उपरान्त मुझे दुर्लभ मानव भव की उपलब्धि हुई है। तथापि मैं मूढ़ प्राणी आपकी आराधना नहीं कर सका। मेरी इस क्षति... त्रुटि की मैं किसके समक्ष शिकायत करू? हे जिनेन्द्र भगवन। मैं आज सभी के लिए हास्य का पात्र बन गया हूँ। इससे अधिक भला मैं क्या अर्ज करू? पर निन्दा करके मैंने अपने सुख को, परस्त्री को निहार अपने नैत्र को तथा दूसरों के दोषों का चिन्तन कर प्रायः मैंने अपने मन को दुषित ही किया है। हे प्रभो! अब मेरी क्या गति होगी? हे त्रिलोकेश्वर! विषय वासनाओं का दास बनकर मैं आज सही रूप में विडम्बना का पात्र बन गया हूँ। हे तीर्थनायक! आप तो सर्वज्ञ हो। सम्पूर्ण ज्ञान के ज्ञाता हो। आपसे मेरा दुःख व भावना छिपी हुई नहीं है। फिर भी मैंने आपके समक्ष अपनी वस्तुस्थिति स्पष्ट की है। हे देवाधिदेव! मैंने अपनी बुद्धि को भ्रमित कर दिया है और मूढ मति के कारण आपका स्मरण करने के बजाय मैंने सदैव रमणियों के सौन्दर्य और कमनीय अंगोपांग का रसास्वादन किया है। स्त्री सौन्दर्य के रागात्मक बन्धन रूपी पंक में मैं इतना सना हुआ हूँ कि शुद्ध सिद्धान्त रूपी सागर-जल से धोने पर भी मैं पवित्र नहीं हो सकता। ___ हे प्रभु! मेरा शरीर शुद्ध व पवित्र नहीं है। मन भी उतना ही अपवित्र है। मेरे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust