________________ 83 भाग्य-नृत्य (भाग्य-नर्तन) अन्दर अनेक दुर्गुणों की भरमार है या यों कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मैं दुर्गुणों की खान हूँ। मैंने कभी विशुद्ध आचरण नहीं किया। अब मुझमें किसी प्रकार की ओजस्विता शेष नहीं है। तिस पर भी हृदय में अड्डा जमाये बैठा अहंकार जाने का नाम नहीं ले रहा है। क्षण प्रतिक्षण मेरी आयु क्षीण होती जा रही है। फिर भी मेरी पाप बुद्धि का नाश नहीं हो रहा है। आयु निरन्तर घटती जा रही है, तथापि विषय वासना के शान्त होने का कोई चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। शारीरिक सुख एवम् सौन्दर्य में अभिवृद्धि करने हेतु मैंने अनेकविध औषधियों का सेवन किया है। परंतु धर्मकार्य में लीन-तल्लीन होने का लेशमात्र भी प्रयल नहीं किया। अरे! मोह का बन्धन भला कितना प्रबल है। फलतः आत्मा नहीं, पुण्य नहीं, पूर्व जन्म नहीं। ऐसी नास्तिक वाणि पर मैंने अगाध श्रद्धा रखी। मेरे लिये यह कितनी शर्मनाक स्थिति है, कि आप सत्य सिद्धान्त रूप में विराजमान होने के उपरान्त भी मैं गूढ नास्तिकों के समूह में सम्मिलित हो, सर्वथा उनके बहकाने में आ गया हूँ। हे प्रभु। मेरी इस मूढ़ता को धिक्कार है। मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी मैंने पूजा अर्चना नहीं की। सुपात्र-सेवा नहीं की। पवित्र और अमूल्य ऐसे जैन कुल में जन्म धारण करने के उपरान्त भी श्रावक धर्म का पालन मैं नहीं कर सका। साधु, भगवन्तों की सेवा-सुश्रूषा में मन नहीं लगा पाया। वास्तव में मेरा मानव जन्म व्यर्थ चला गया। हे नाथ! काम के वशीभूत होकर मैं विषय वासनाओं का उपभोग करने में ही निरन्तर लगा रहा, जिसका परिणाम सदैव दुःख दायक और कष्टप्रद ही होता है। फिर भी मैं उसमें ही आसक्त रहा। इस तरह उभय लोक से पार लगाने वाले श्री जिनेश्वर भगवान के उपदेशों में मेरा मन तनिक भी नहीं रमा। नित नये भोगों को भोगने के ही विचार करता रहा, किन्तु मेरी बुद्धि में यह कभी नहीं उपजा कि यह सब राग-अनुराग के कारण हैं और इससे प्राणी-मात्र का पतन होता है। साथ ही संसार में परिभ्रमण करानेवाला यह एक दुष्ट चक्र है। जिसमें एक बार उलझ जाने पर जीवको बार बार जन्म मरण के चक्कर काटना पड़ता है। हे तारक प्रभो! मैंने साधु के चरित्र रूपी रत्न का ध्यान नहीं लगाया। परोपकारी कार्यों से सदैव दूर रहा। तीर्थों का जीर्णोद्धार नहीं किया। ____ हे जगत प्रभु! गुरु वाणी से असीम शान्ति प्राप्त करने के स्थान पर मैंने दुर्जनों की वाणी में प्रायः आनन्द और परम शान्ति का अनुभव किया। आत्म चिंतन करने का कभी लेशमात्र भी विचार नहीं लाया। अरे रे! मैं अब किस विधि इस संसार रूपी महासागर को पार कर सकूँगा? हे भगवन्त! पूर्व भव में मैंने किसी प्रकार के पुण्य रूपी धन का संचय नहीं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust