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भव्यजनकण्ठाभरणम् ।
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श्रीमाजिनो मे श्रियमेष दिश्याद्यदीयरत्नोज्ज्वलपादपीठम् । करैर्नतेन्द्रोत्करमौलिरत्नैः स्वपक्षागादिव चालितं स्वैः ॥ १॥
अर्थ-वे भगवान् जिनेन्द्र देव मुझे लक्ष्मी प्रदान करें, जिनका रत्नोंसे उज्ज्वल पादपीठ (चरणोंके रखनेका आसन) नमस्कार करते हुए इन्द्रोंके समूहके मुकुटोंमें लगे हुए रत्नोंके द्वारा, मानों अपने पक्षके रागवश ही, अपने करों अर्थात् किरणोंसे लालित हुआ। अर्थात् जिनके चरणोंको इन्द्र नमस्कार करते हैं वे भगवान् मुझे लक्ष्मी प्रदान करें ॥१॥
सदापि सिद्धो मयि संनिध्यात्स सिद्धवध्वा सह सान्द्रसौख्यम् । चर्वत्यजस्रं तनुमारुतान्तः संभोगभाविश्रमभीतवद्यः ॥ २॥ ____ अर्थ - वे सिद्धपरमेष्टी सदा मेरे अन्तःकरणमें निवास करें, जो संभोगमें होनेवाले श्रमसे डरे हुए की तरह लोकके ऊपर तनुवातवलयके अन्तमें सिद्धिरूपी बधूके साथ निरन्तर सुखोपभोग करते हैं ॥२॥
आचार्यवर्याश्चरितानि शिष्यानाचारयन्तः स्वयमाचरन्तः । षट्त्रिंशतापि स्वगुणैर्युतास्तैः सदा परात्माष्टगुणाभिलाषाः ॥ ३ ॥ ___ अर्थ -- जो उत्तम चारित्रका ( ज्ञानाचार, दर्शनाचारादिक पांच आचारोंका स्वयं ) आचरण करते हैं और शिष्यों से आचरण
१ ल. लालित।
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