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६२*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम
तरह कर्मोंका आस्रव रूक जाता है, वह मेरा प्यारा भावसंवर है । और आस्रवका रुकना द्रव्यसंवर है ॥ १७५ ॥ . अब निर्जरातत्त्वको कहते हैं
आत्मप्रदेशस्थितकर्म येन निरस्यतेऽशेन मतो ममैषः । शुद्धोपयोगः स तु निर्जरा स्याद्भावादिरेनोगलनं परा सा || १७६ ॥
अर्थ- निर्जराकेभी दो भेद हैं- भावनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा। आत्माके जिस शुद्धोपयोगरूपभावसे आत्माके प्रदेशोंके साथ बंधे हुए कर्म थोड़ा थोड़ा करके झरते हैं वह मुझे प्रिय भावनिर्जरा है और कर्मोंका झडना द्रव्यनिर्जरा है ॥ १७६ ॥
अब मोक्षतत्त्वका वर्णन कहते हैं--- ' स्यात्कृत्स्नकर्मक्षयहेतुरात्मभावः शरण्यो मम भावमोक्षः । स्याद्रव्यमोक्षो भवतीह जीवः कर्माष्टकात्यन्तपृथक्स्वरूपः ॥१७७॥
अर्थ- मोक्षतत्त्वकेगी दो भेद हैं.. भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । आत्माका जो भाव समस्त कीके नष्ट होने में कारण होता है वह मेरा आश्रयदाता भावमोक्ष है और जीवका आठों कर्मोंसे अत्यन्त भिन्न हो जाना द्रव्यमोक्ष है ॥ १७७ ॥
तत्त्वोंके कथनका उपसंहारइत्युक्तमेतत्खलु सप्तभेदं तत्त्वं पदार्था नव यत्समेतम् । ताभ्यां निलीने निजबन्धतत्त्वे ये द्रव्यभावादिकपुण्यपापे ।।१७८॥
अर्थ-- इसप्रकार तत्त्वके सात भेदोंका कथन किया। इन सात तत्त्वोंमें पुण्य और पापको मिलादेनेसे नौ पदार्थ हो जाते हैं । किन्तु उनका अन्तर्भाव अपने अपने बन्ध तत्त्वमें हो जाता है, अर्थात् भावपुण्य और भाव पापका अन्तर्भाव अपने अपने भावबन्धमें हो जाता है
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