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भव्यजनकण्ठाभरणम् ***
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मोक्षप्रदैर्मूलगुणैश्च सर्वैरप्युत्तररात्मगुणैश्च रम्यैः ।। समन्विता ये भुवि तन्वते ते मार्गप्रकाशं गणिनो महान्तः ॥ २३० ____ अर्थ- मोक्षको देनेवाले समस्त मूलगुणों और सुन्दर उत्तर गुणों से युक्त होकर जो लोकमें मोक्षमार्गको प्रकाशित करते हैं वे महान् आचार्य होते हैं ॥ २३० ।।
__उपाध्यायपरमेष्ठीका स्वरूपउपेत्य शिष्यरुदितप्रमोदैरधीयते मोक्षपथप्रदर्शि । शास्त्रं यतो मह्यममी च सार्थोपाध्यायसंज्ञाः स्वपदं दिशन्तु ॥२३१
__ अर्थ- जिनके पास प्रसन्नतापूर्वक जाकर शिष्यगण मोक्षमार्गको बतलानेवाले शास्त्रको पढ़ते हैं, वे सार्थक नामवाले उपाध्याय परमेष्ठी मुझे अपना पद प्रदान करें ॥ २३१ ।।
ममाशु सिद्धिं मधुरां महान्तो दिशन्तु ते शिष्यजनाय शिष्टाः। ' परार्थनिष्ठां परमागमं ये व्याख्यान्ति वीतैहिकविश्ववाञ्छाः ॥२३२।। ___ अर्थ- जिनकी इस लोकसम्बन्धी समस्त इच्छाएँ दूर होगई हैं और जो परमागमका व्याख्यान करते हैं वे महान् शिष्ट उपाध्याय परमेष्ठी मुझे मोक्ष प्रदान करें और शिष्य लोगोंको परमार्थमें लगनेकी श्रद्धा प्रदान करें ॥ २३२ ॥ __साधुपरमेष्ठीका स्वरूपसम्यक्त्वबोधाचरणानि शस्तान्यशेषदुःखाहतिकारणानि । ये साधयन्त्यन्वहमत्र सिद्धयै ते साधवो मे वितरन्तु सिद्विम् ।।२३३।। ____ अर्थ- जो प्रतिदिन मुक्ति के लिये समस्त दुःखोंको नष्ट करने में कारण सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका साधन करते हैं वे साधु मुझे सिद्धि प्रदान करें ॥ २३३ ॥
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