Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 96
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम ************************** ७९ हुए प्राणियोंको उससे निकालकर अनुपम मोक्षस्थानमें धरता है। वह सदा जयवन्त हो ।। २२२ ॥ देशेषु कालेषु कुलेषु सर्वेष्वेकस्थितिः सस्यवदेष धर्मः । .. फलप्रदोऽन्येऽवकरा यथैव बहुप्रकारा विफला भवन्ति ॥ २२३ ॥ अर्थ- सब देशोंमें, सब कालोंमें और सब कुलोंमें एकसी स्थितिवाला यह धर्म धान्यकी तरह फलदायक होता है । इसके सिवाय अन्य सब धर्म कूड़े के ढेरकी तरह निष्फल होते हैं ॥२२३ ॥ धर्मः समस्ताभ्युदयस्य सिद्धिं निःश्रेयसस्यापि करोत्यवश्यम् । तत्रेन्द्रचक्रेश्वरतादिरूपां स्वात्मोपलब्धि सुखवार्धिमन्यः ॥ २२४॥ ___ अर्थ-- धर्मसे समस्त अभ्युदयकी और मोक्षकीभी अवश्य प्राप्ति होती है, उनमेंसे इन्द्र और चक्रवर्ती वगैरहके पद अभ्युदय कहे जाते हैं । और स्वात्माकी उपलब्धिरूप सुखके समुद्रको मोक्ष कहते हैं ॥ २२४ ॥ कल्पद्रुचिन्तामणिकामगव्यो धर्मैकवश्याः सुखदाः परेऽपि । नो चेद्वसन्त्यत्र वसन्ति तेऽपि प्रयाति लोके किमिति प्रयान्ति।।२२५ ___ अर्थ- कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु तथा अन्यभी सुख देनेवाले पदार्थ एक धर्मकेही अधीन हैं। यदि ऐसा न होता तो धर्मके होनेपरही लोकमें सब क्यों होते और धर्मके चले जानेपर क्यों सब चले जाते ॥ २२५ ।। साधुका स्वरूपआत्माङ्गभेदावगमप्रभावादुद्यद्विरत्योपधिशल्यदूराः । सन्तस्तमेवेह चरन्ति धर्म ये मेरुधीरा गुरवस्त एव ।। २२६ ।। १ ल. तत्रेन्द्रचक्रेश्वरतादिराद्यः स्वात्मोपलब्धिः सुखवार्धिरन्यत् ।.. For Private And Personal Use Only

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