Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 100
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *** *** ८३ अर्थ- उन आचार्य वगैरह के सद्वचनों को सुनकर संसारसे डरे हुए जो गृहस्थाश्रम में रहते हुए आत्मधर्मका पालन करते हैं और बाकी ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा साधु आश्रममें रहनेवालोंके सहायक होते हैं, वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य हैं ॥ २३६ ॥ आराध्यमानामलदर्शनास्ते धर्मेऽनुरक्ताः शमिनां सदापि । एकं यथाशक्ति भजन्त्यशल्यमेकादशाणुत्रतिकास्पदेषु ॥ २३७ ॥ अर्थ- सदाही मुनियोंके धर्मसे प्रेम रखते हुए वे श्रावक निर्मल सम्यग्दर्शन की आराधना करते हैं और माया, मिध्यात्व, निदान इन तीनों शल्योंको छोड़कर अर्थात् निःशल्य होकर श्रावकके ग्यारह दर्जीमें यथाशक्ति एक प्रतिमाका पालन करते हैं ॥ २३७ ॥ ते पात्रदानानि जिनेन्द्रपूजाः शीलोपवासानपि चिन्वते च । न्यायेन कालाद सतीश्वरोपभोगस्य शर्मानुभवन्ति चाक्षम् ॥ २३८ ॥ अर्थ- वे श्रावक पात्रोंको दान देते हैं, जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हैं, शीळका पालन करते हैं, पर्वके दिनों में उपवास करते हैं । योग्यकालमें इन्द्रियोंके सुखको भोगते हैं । अर्थात् अपनी स्त्रीका असतीपना - जाननेवाला पुरुष उसके ऊपर आसक्त न होकर उदासीनता से उसका उपभोग लेता है वैसे इन्द्रियोंके विषयोंमे लंपट न होकर उनके सुखका उपभोग वे श्रावक लेते हैं और इन्द्रियों के सुखको भोगते हैं ॥ २३८ ॥ कर्तुं तपः संयमदानपूजाः स्वाध्यायमध्याश्रितचारुवातीः | ते तद्भव श्रीजिन सूक्तशुद्धया पक्षादिभिश्वाघलवं क्षिपन्ति ॥ २३९ ॥ अर्थ- न्यायपूर्वक उत्तम आजीविका करनेवाले वे गृहस्थ तप, संयम, दान, पूजा और स्वाध्यायको करनेके लिये आजीविका में होने For Private And Personal Use Only

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