Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 102
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम ************************** ८५ अर्थ- धर्मके अनुरागी समस्त भव्य जीवोंके द्वारा ऐसेही धर्मात्मा पुरुष पृथ्वीपर आदरणीय होते हैं। ठीकही है, अमृतके प्रेमी मनुष्य जिन पात्रोंमें अमृत रखा जाता है उन पात्रोंमें भी अनुराग करते हैं ॥ २४० ॥ इत्युक्तमातादिकषट्करूपं संशृण्वतोऽत्रैव दृढा रुचिः स्यात् । सज्ज्ञानमस्याश्चरितं ततोऽस्मात्कर्मक्षयोऽ स्मात्सुखमप्यदुःखम् ॥२४१।। अर्थ- इस प्रकार देव, शास्त्र, गुरु और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रका स्वरूप कहा, इसको सुननेसे इनमें दृढ़ श्रद्धान होता है । दृढ़ श्रद्धान होनेसे सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं, उनसे कर्मोका क्षय होता है। कर्मोका क्षय होनेसे दुःखसे रहित सुख होता है ॥ २४१ ।। आप्तादिरूपमिति सिद्धमवेत्य सम्यगेतेषु रागमितरेषु च मध्यभावम् । ये तन्वते बुधजना नियमेन तेऽर्हद्दासत्वमेत्य सततं सुखिनो भवन्ति।।२४२॥ अर्थ- जो ज्ञानी पुरुष ऊपर कहे हुए आप्त आदिके स्वरू. पको अच्छी तरहसे जानकर उनमें राग करते हैं और अन्य कुदेवता वगैरहमें माध्यस्थ्यभाव रखते हैं अर्थात् अन्य कुदेवोंसे न राग करते हैं और न द्वेष । वे नियमसे अर्हन्त भगवान्के सेवक बनकर सदा सुखी रहते हैं ॥ २४२ ॥ इत्यर्हद्दासकृतं भव्यकण्ठाभरणं समाप्तम् । श्रीअर्हद्दासकृत भव्यजनकण्ठाभरण समाप्त हुआ । For Private And Personal Use Only

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