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जनकण्टाभरणम
निराकृतान्तस्तमसो निषेव्या दिगम्वरैः सन्ततवृत्तदेहाः । सुनिर्मलाः साधुसुधांशवो मे हरन्तु सन्तापमदृष्टपूर्वाः ॥ २३४ ।।
___ अर्थ- जिन्होने अभ्यन्तरके अन्धकारको दूर कर दिया है जो दिशारूपी वस्त्रको धारण करते हैं अर्थात् नग्न रहते हैं, निरन्तर वृत्त ( चारित्र ) से युक्त जिनका शरीर है और जो अत्यन्त निर्मल हैं, तथा जिनको कभी पहले देखनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ वे साधुरूपी चन्द्रमा मेरे सन्तापको दूर करें।
भावार्थ-- यहां साधुको ऐसा चन्द्रमा बतलाया है जो कभी पहले नहीं देखा गया। क्यों कि चन्द्रमा अभ्यन्तरके अन्धकारको दूर नहीं करता किन्तु साधुरूपी चन्द्रमा अभ्यन्तरके अन्धकारको अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर कर देता है । चन्द्रमाका शरीर सदा वृत्त (गोल) नहीं रहता, किन्तु साधुरूपी चन्द्रमाका वृत्त ( चारित्र ) ही शरीर होता है । चन्द्रमा अत्यन्त निर्मल नहीं होता-उसमें कलंक होता है, किन्तु साधुरूपी चन्द्रमा कलंकसे रहित होता है ।। २३४ ॥ अर्ध्याः सहार्थाभिधयेति संवैराचार्यमुख्या गुरवस्त्रयोऽपि । असारसंसारविनाशहेतोराराधनीया अनिशं मया स्युः ॥ २३५ ।।
अर्थ- इस प्रकार अपने सार्थक नामके कारण सभीके द्वारा पूज्य अचार्य आदि ये तीनों ही गुरु इस असार संसारका विनाश करनेके लिये सदा मेरे आराध्य हो, अर्थात् मैं उनकी सदा आराधना करूं ।। २३५ ॥
सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः । त एव शेषाश्रमिणां सहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः॥२३६।।
१ ल. सर्वेऽप्या २ ल. सहायधन्याः
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