________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Co ****
★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम्
अर्थ--- शरीर और आत्माके भेदज्ञानके प्रभावसे, उत्पन्न हुई निवृत्ति के कारण परिग्रहरूपी शल्यका त्याग कर देनेवाले सज्जन पुरुष, जो मेरुके समान स्थिर होते हैं, इसी धर्मका आचरण करते हैं और वे ही गुरु हैं ॥ २२६ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संन्यस्य सङ्गं सकलं विरक्त्या तपांसि सम्यक् सततं चरन्तः । सम्यक्त्वबोधाचरणैः समेताः सन्तोपदा मे शमिनोऽद्य सन्तु ॥ २२७
अर्थ- जो समस्त परिग्रहको त्याग कर विरक्त होते हैं और सदा भली प्रकारसे तप का आचरण करते हैं तथा जो सम्यग्दर्शन; सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सहित हैं, वे शान्त महात्मा आज मुझे सन्तोष प्रदान करें ॥ २२७ ॥
अष्टाधिकायामपि विंशतौ ये दीव्यन्ति मूलेषु गुणेषु सिद्धयै । शुद्धात्मचिन्ताः स्वहितैषिलोकैस्त एव सेव्या गुरवः सदापि ॥ २२८
अर्थ- जो मोक्षकी प्राप्तिके लिये अट्ठाईस मूल गुणों को पालत हैं और शुद्ध आत्मतत्त्वका विचार करते रहते हैं अपना हित चाहनेवाले लोगोंको सदा उन्हीं गुरुओं की सेवा करनी चाहिये ॥ २२८ ॥ आचार्यपरमेष्ठीका स्वरूप
---
आचार्यवर्याः स्वपदं दिशन्तु स्वयं च शिष्यांश्व सदा चरन्ति । ये चारयन्त्या चरणानि पञ्च भाक्तान्युदाराणि च वास्तवानि ।। २२९
अर्थ- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन महान और वास्तविक पञ्चाचारोंका जो स्वयं आचरण करते हैं और अपने शिष्योंसे आचरण कराते हैं वे श्रेष्ठ आचार्य अपना पद प्रदान करें ।। २२९ ॥
For Private And Personal Use Only