Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ *************************** भव्यजनकण्ठाभरणम् ____ अर्थ- अपने अनुपम तप, अनुपम ज्ञान, अनुपम सम्पत्ति, असाधारण बल, अनुपम आदर-सत्कार, असाधारण कुल, असाधारण जाति और अनुपम रूपके मदमें चूर होकर अपना बड़प्पन जतानेवाला अथवा अन्य साधर्मी बन्धुओंका तिरस्कार करनेवाला सम्यग्दर्शनको हानि पहुचाता है ॥ १८६ ।। ___ अब छै अनायतनोंको कहते हैंत्रीण्यप्रशस्तेक्षणबोधवृत्तान्याहुर्जिनास्त्रीनपि तत्समेतान् । सम्यग्दशोऽनायतनानि षट् च तत्सेवनं दृङ्मलमाशु मुश्चेत् ॥१८७ ।। ___ अर्थ- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन, और तीन इनके धारक, इस तरह ये सम्यग्दर्शन के छै अनायतन हैं । इनकी सेवा करनेसे सम्यग्दर्शनमें दोष लगता है। अतः इन्हें तुरन्त छोड़ देना चाहिये ॥ १८७ ।। ___ सम्यग्दर्शनके आठ दोष-- शङ्का च काङ्क्षा विचिकित्सयामा मूढेक्षणत्वानुपगृहने च । स्थितिक्रियावत्सलभावधर्मप्रकाशनाशाश्च दृशोऽष्टदोषाः ॥ १८८ ॥ __ अर्थ- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूदृदृष्टिता, अनुपगूहन, स्थितिकरणका न करना, वात्सल्य भाव का अभाव और धर्मका प्रकाश न होने देना ये आठ दोष सम्यादर्शनके हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंके विरोधी ये आठ दोष हैं ॥ १८८ ॥ पहले निःशंकित अंगका स्वरूपसुखावहं तत्सुदृशोऽगमाद्यमस्तीदमेवेदशमेव तत्त्वम् । नान्यन्न चान्थाइशमित्यशेषेऽप्यत्रायसाम्भोवदकम्पनत्वम् ॥ १८९।। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104