Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 87
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० *************************** भव्यजनकण्ठाभरणम ____ अर्थ- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तथा उनके धारी पुरुषोंसे सम्बन्ध नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना और न उनके पक्षमें सम्मति देना चौथा अमूदृष्टि अंग है ॥ १९२ ॥ ___ पांचवे उपगूहन अंगका स्वरूप-- स्वभावतोऽत्यन्तविशुद्धिमाजोऽप्यशक्तबालाश्रयवाच्यभावम् । मार्जन्ति मार्गस्य महानुभावा यदेतदुच्चैरुपगूहनं स्यात् ॥ १९३ ॥ __ अर्थ-- स्वभावसेही अत्यन्त विशुद्ध जैनमार्ग (धर्म) की असमर्थ और मूर्ख जीवोंके कारण होनेवाली बदनाभीको जो महानुभाव प्रयत्न करके दूर करते हैं उसे उपगृहन अंग कहते हैं ॥ १९३ ॥ ___ छठे स्थितिकरण अंगका स्वरूपकुदृष्टिकृत्यां शुभदृष्टिमातुः कुवृत्तिकिपाकवनं चलन्तम् । सुवृत्तकल्पद्रुवनात्प्रबोध्य तयोः पुनः स्थापयतीति षष्ठम् ॥ १९४ ॥ ___ अर्थ. - शुभदृष्टि-सम्यग्दर्शनरूपी माताको छोडकर मिथ्यादृष्टिरूपी कृत्या-राक्षसीके पास जानेवाले साधर्मिकको, तथा सम्यक्चारित्ररूपी कल्पवृक्षोंके वनसे मिथ्याचारित्रके तरफ जानेवाले साधर्मिकजनको पुनः सम्यग्दृष्टि माताके पास और सम्यक्चारित्ररूपी कल्पवृक्षके पास स्थापन करना स्थितिकरण अंग है ॥ १९४ ॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शनसे तथा चारित्रसे साधर्मिक यदि भ्रष्ट हो तो उसको पुनः सम्यग्दर्शनमें और चारित्रमें स्थित करना उसे स्थितिकरण अंग कहते हैं। सातवें वात्सल्य अंगका स्वरूप---- यशांसि लाभाननपेक्ष्य पूजाः स्वदेशपक्षादिकमप्युपेक्ष्य ।। धर्मानुरागेण पर त्वमुच्चैर्वत्साईतेष्वातनु वत्सलत्वम् ॥ १९५ ॥ For Private And Personal Use Only

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