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भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ६९
अर्थ- तत्त्व यही है और इसी प्रकार है, अन्य नहीं है और न अन्य प्रकारसेही है इस प्रकार समस्त तत्त्वोंके विषयमें तलवारकी धारके समान निश्चल श्रद्धान होना, सम्यग्दर्शनका प्रथम अंग है, जो सुखको देनेवाला है ॥ १८९॥
दूसरे निःकांक्षित अंगका स्वरूप -- पुण्यैकवश्योऽभ्युदयोऽत्र जन्तोरमुत्र चातोऽप्यभिमानमात्रम् | सुखं च तेनात्र न पौरुषं च तृष्णां च कुर्याचदि तद्वितीयम् ।।१९० ___ अर्थ- इस लोक और परलोकमें जीवको जो ऐश्वर्य प्राप्त होता है वह सब उसके पुण्यकर्मके आधीन है, उसमें सुख मानना कोरा अभिमान मात्र है । अतः उसकी प्राप्तिके लिये न तो उद्योग करना और न उसकी चाह करना दूसरा निःकांक्षित अंग है ॥ १९० ॥
तिसरे निर्विचिकित्सा अंगका स्वरूपबीजादिभिः स्यादशुचीदमङ्गमस्नानताशुद्भटकुत्स्यरूपम् । तद्वीक्ष्य भव्यः शमिनां प्रमोदे मग्नोऽश्नुतेऽल्पामपि किं जुगुप्साम्।। ____ अर्थ- यह शरीर रज, वीर्य वगैरहसे बना होनेसे एक तो स्वयंही अपवित्र है। फिर स्नान वगैरह न करनेसे तो इसकी कुरूपता और भी अधिक बढ़ जाती है। अतः मुनिजनोंके घृणित शरीरको देखकर उनके गुणोंमें मग्न हुआ भव्य पुरुष क्या थोडीसीभी ग्लानि करेगा ? ॥ १९१ ॥
चौथे अमूढदृष्टि अंगका स्वरूप ---- कायेन वाचा मनसा तु मिथ्याग्ज्ञानवृत्तेषु च तद्भुतेषु । करोति सम्पर्कमिह प्रशंसां न संमतिं चेति चतुर्थमेतत् ॥ १९२ ॥
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