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★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★भव्यजनकण्ठ
कोंको नष्ट करके अविनाशी अनन्तगुणोंका पाना और अनन्त सुखके समुद्रमें मग्न रहना यह मोक्ष नामक परमस्थान है ॥ २१२ ॥
सम्यग्ज्ञानका स्वरूप-- सज्ज्ञानमेतत्सुदृशः प्रसादाद्यत्सर्वतत्त्वानि यथावदेव । न्यूनातिरेकावपि संशयित्वविपर्ययावप्यपनीय वेत्ति ।। २१३ ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शन के प्रसादसे समस्त तत्त्वोंको न्यूनतारहित, अधिकतारहित तथा संशय और विपरीततासे रहित ज्यों का त्यों ठीक ठीक जानना सम्यग्ज्ञान है ॥ २१३ ।।
मत्या श्रुतेनावधिना च तेन ताभ्यां मनःपर्ययकेवलाभ्याम् । भेदैरितीदं महितं परोक्षप्रत्यक्षभूतविदितात्मवेद्यैः ॥ २१४ ॥
__ अर्थ- आत्मतत्त्वके ज्ञाता महापुरुषोंने उस सम्यग्ज्ञानके पांच भेद कहे हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञान । इनमेंसे आदिके दो ज्ञान परोक्ष हैं और बाकीके तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥ २१४ ॥
सम्यक्चारित्रका स्वरूपतेनावगम्य व्रतमोहहानौ भोगास्पृहस्याघभियैव साधोः । हिंसादितः स्यात्कृतकारितानुमोदैस्त्रियोगैर्विरतिः सुवृत्तम् ॥ २१५ ॥
अर्थ- सम्यग्ज्ञानके द्वारा जानकर चारित्र-मोहके घट जानेपर जो साधु पुरुष भोगोंसे निस्पृह होता हुआ पापके भयसेही मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे हिंसादिपापोंका त्याग करता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥ २१५ ॥ महार्थदायीदमणुव्रतं च महाव्रतं चेति मतं द्विभेदम् । अत्राणुवृत्तं गृहमेधिनां स्यान्महाचरित्रं मुनिपुङ्गवानाम् ।। २१६ ।।
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