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भव्यजनकण्ठाभरणम् ******
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करके जगमगाती हुई जिनदीक्षा लेना और अपने निर्मल यशसे समस्त विश्वको व्याप्त कर देना तपोधनत्व अथवा पारिव्राज्य नामक परमस्थान है ॥ २०८ ॥
स्वाराज्यमेतत्सुचिरं सभायां सुराङ्गनानां रमते सुराणाम् । जिनेन्द्रकल्याणकरः स सप्तानीकाणिमाद्यष्टगुणावधिर्यत् ॥ २०९ ॥
अर्थ- चिरकालतक देव और देवांगनाओंकी सभामें रमण करना, जिनेन्द्रदेवके पञ्चकल्याणकोंको सम्पन्न करना और सात प्रकारकी सेना तथा अणिमा आदि आठ गुण और अवधिज्ञान शोभित होना यही स्वाराज्य या इन्द्रत्व नामक परमस्थान है ॥ २०९॥
साम्राज्यमेतद् यदवत्यशेषां धात्री सहस्रः सह षण्णवत्या । नारीभिरीशो नवभिर्निधानै रत्नसिप्तैश्च षडङ्गसैन्यैः ॥ २१० ॥
अर्थ- छियानवें हजार स्त्रियां, नौ निधि, चौदह रत्न और छै अंगोंसे युक्त सेनाके साथ समस्त पृथ्वीका पालन करना साम्राज्य नामका परमस्थान है ॥ २१० ॥ जिनत्वमेतन्जितघातिकर्मा ( धर्मा ) श्रिताद्भुतानन्तचतुष्टयोऽर्हन् । अमर्त्यमांसुरयोगिनाथैराराधितः स्नौत्यमृतं वृषं यत् ॥ २११ ॥ ____ अर्थ- घातिकर्मोंको जीतकर और अनन्त चतुष्टयको प्राप्त करके, इन्द्र, चक्रवर्ती, असुरपति और गणधरोंसे पूजित अर्हन्तदेव जो धर्मामृतकी वर्षा करते हैं यही आर्हन्त्यनामक परमस्थान है ।।२११।। विशुद्धरत्नत्रयपूर्णसेवा विध्वस्तकृत्स्नाष्टविभेदकर्मा । मग्ना सुखापारसुधाम्बुराशौ मान्याक्षयानन्तगुणा च सिद्धिः ॥२१२
अर्थ- निर्दोष और सम्पूर्ण रत्नत्रयके पालनसे समस्त आठ १ ख्यात्यमृतं इति पाठः ।
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