Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 83
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६ ** www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् आसन्नभव्योत्तमभावकर्महानी च संज्ञित्वविशुद्धभावौ । सम्यक्त्वलाभान्तरहेतुरन्यो धर्मोपदेशातिशयेक्षणादिः ॥ १८१ ॥ अर्थ - निकट भव्यपना, अर्थात् शीघ्रही मोक्षको प्राप्त करने की योग्यता, सम्यक्त्वको रोकनेवाले मिथ्यात्व आदि कर्मो का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम, संज्ञीपना अर्थात् मनकी सहायता से उपदेश आदिको ग्रहण कर सकने की योग्यता और विशुद्ध परिणामोंका होना ये चार सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में अन्तरंग कारण हैं । तथा सच्चे गुरुका उपदेश और जैनधर्मके अतिशयका दर्शन वगैरह बाह्य कारण हैं ॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में पांच लब्धियां कारण होती हैं । इस श्लोक के द्वारा ग्रन्थकारने उन्हींका स्वरूप दिखलाया है। जैसे कर्महानिसे प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप बतलाया है । संज्ञीपनेसे क्षयोपशम लब्धिका स्वरूप दिखाया है। विशुद्धभावसे विशुद्धि लब्धिको बतलाया है । उपदेश से देशनालब्धिको बतलाया है। ये चार लब्धियां अभव्य भी हो सकती हैं । निकट भव्य' शब्दसे पांचवी करणलब्धि सूचित होती हैं क्यों कि यह लब्धि सम्यक्त्वके उन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव केही होती है। इसके होने पर सम्यक्त्व अवश्य होता है ॥ १८१ ॥ 6 देवाधिदेवो जिन एव देवस्तस्यैव तथ्यं वचनं च पथ्यम् । तदुक्त एवात्महितोऽस्ति धर्मो निर्बन्ध इत्येषु सुसाधयेत्तत् ॥ १८२ ॥ | अर्थ - जिनदेवही देवों के भी देव हैं, उन्हींका वचन सत्य और पथ्य है, उनके द्वारा कहा गया धर्मही आत्माका हित करनेवाला है, इस प्रकारका अभिप्राय सम्यग्दर्शन के होने परही होता है || १८२ ॥ १ ल. इत्येष For Private And Personal Use Only

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