Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ६३ और द्रव्यपुण्य तथा द्रव्यपापका अन्तर्भाव अपने अपने द्रव्यबन्धमें हो जाता है ॥ १७८ ॥ श्रद्धानमस्यैव दुरापमुक्तं सम्यक्त्वमष्टाङ्गमपास्तदोषम् । आस्तिक्यसंवेगशमानुकम्पाविवर्धितं दत्तकुबोधशुद्धि ॥ १७९॥ अब सम्यग्दर्शनका कथन करते हैं अर्थ- इन्हीं सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। वह सम्यग्दर्शन आठ अंगसहित और पच्चीस दोषोंसे रहित होता है। आस्तिक्य, संवेग, प्रशम और अनुकम्पा भावसे पुष्ट उस सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । उसके होनेसे आत्मामें स्थित मिथ्याज्ञान शुद्ध होकर सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं। भावार्थ- सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं- इस लोकका भय, परलोकका भय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिकभय इन सात भेदोंको छोड़कर तत्त्वार्थका श्रद्धान करना पहला निःशंकित अंग है। इसलोक और परलोकके भोगोंकी चाह नहीं करना निःकांक्षित अंग हैं। रत्नत्रयसे पवित्र आत्माओंके अपवित्र शरीरको देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। अर्हन्तको छोडकर अन्य कुदेवोंके द्वारा कहे हुए धर्मका पालन न करना अमूढदृष्टि है। उत्तम क्षमा आदिके द्वारा आत्माके धर्मकी वृद्धि करना और चतुर्विध संघके दोषोंको प्रकट नहीं करना उपबृंहण या उपगूहन अंग है। धर्मके घातक कारण उपस्थित होनेपरभी धर्मसे च्युत न होना स्थितिकरण अंग है। जिन शासन और उसके अनुयायियोंसे सदा अनुराग रखना वात्सल्य है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके द्वारा जैनशासनका प्रकाश करना प्रभावना अंग है। सम्यग्दर्शनके इन For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104