Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् ***************************६१ अर्थ-- जैनधर्ममें छै द्रव्य माने गये हैं। उनमें से काल द्रव्यको छोड़कर शेषको पञ्चास्तिकाय कहते हैं। जीवके सिवाय शेष सब द्रव्य अचेतन हैं । और पुद्गलको छोड़कर बाकीके पांचो द्रव्य अमूर्तिक हैं ॥ १७२ ॥ अब आस्रवतत्त्वको कहते हैंयेनात्मभावेन स कर्मयोग्यः कर्मत्वमागच्छति पुद्गलौघः । भावास्रवोऽसावशुभेक्षणादिव्यास्रवः पुद्गलकर्मताप्तिः ।। १७३ ॥ ___ अर्थ-- आस्रवतत्त्वके दो भेद हैं- भावासव और द्रव्यास्त्रव । आत्माके जिस भावसे कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गल स्कन्ध कर्मपनेको प्राप्त होते हैं उसे भावास्रव कहते हैं । जैसे बुरे भावसे किसीकी आर ताकना वगैरह । तथा पुद्गलोंका जीवके कर्मरूप होना द्रव्यास्रव है ॥ १७३ ॥ ___ अब बन्धतत्त्वका कथन करते हैंकर्मात्मभावेन तदस्ति बद्धं योगादिना येन स भावबन्धः । क्षीराम्बुवचेतनकर्मसर्वप्रदेशसंश्लेषणमन्यबन्धः ।। १७४ ॥ __ अर्थ- बन्धतत्त्वकेभी दो भेद हैं-भावबन्ध और द्रव्यबन्ध । आत्माके जिस योग आदि रूप भावसे कर्म बंधते हैं उसे भावबन्ध कहते हैं । और आत्मा तथा कर्मके प्रदेशोंका दूध पानीकी तरह परस्परमें बंध जाना द्रव्यबंध है ॥ १७४ ॥ __ अब संवरतत्त्वका कथन करते हैं--- येनात्रवः साधु निरुध्यतेऽङ्गिभावेन सदर्शनसंयमादिः । भावादिरिष्टो मम संवरःस्याद्रव्यादिकस्त्वानवसन्निरोधः ॥ १७५।। अर्थ- संवरकेभी दो भेद हैं- भावसंवर और द्रव्यसंवर। आत्माके जिस सम्यग्दर्शन और संयमआदिरूपभावसे अच्छी For Private And Personal Use Only

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