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६०*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम्
. अर्थ- जैसे मछलीको चलनेमें जल सहायक होता है वैसेही स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गलोंको जो चलने में सहायक होता है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। और जैसे पथिकको ठहरनेमें छाया सहायक होती वैसेही चलते हुए जीव और पुद्गलोंको ठहरनेमें जो सहायक होता है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं ॥ १६९ ।।
नित्यं स्थितं यचतुरस्रमेकं घन नभोऽनन्तनिजप्रदेशम् । भावावगाहप्रदमस्ति तत्स्यादलोकलोकाम्बरभेदभिन्नम् ॥ १७० ।। ___ अर्थ-- जो समस्त द्रव्योंको अवगाह देता है उसे आकाश कहते हैं । वह आकाश नित्य है, अवस्थित है, सब तरफ फैला हुआ
और विशाल है, अनन्त प्रदेशवाला है। उसके दो भेद हैं--लोकाकाश और अलोकाकाश । अनन्त आकाशके मध्यभागको, जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य पाये जाते हैं, लोकाकाश कहते हैं । और लोकाकाशके बाहर सर्वत्र जो अकेला आकाशद्रव्य है उसे अलोकाकाश कहते हैं ॥ १७० ॥ भिन्ना मणीराशिवदेव लोकाकाशप्रदेशेष्वणवोऽतिसङ्ख्याः । ये सन्ति मुख्योऽर्थविवर्तहेतुः कालस्तदात्मा समयादिरन्यः ॥१७१॥ ___ अर्थ-- लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक एक करके रत्नोंकी राशिकी तरह जुदे जुदे जो असंख्यात कालाणु स्थित हैं वह मुख्य कालद्रव्य है यह द्रव्य पदार्थोके परिणमनमें सहायक है। तथा उसके निमित्तसे जो समय, मिनिट घड़ी, घंटा आदि पर्याय होती हैं वह व्यवहार काल है ॥ १७१ ॥
द्रव्याणि षड्जनमतेऽत्र तेऽमी पञ्चास्तिकायाः परिहीणकालाः । अचेतना जीवमृते भवन्ति मूर्तेतराः पुद्गलमन्तरेण ।। १७२ ॥
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